आचार्य रावण ने करवाया था राम-सीता मिलन
जय श्रीकृष्णा
नमस्कार साथियों
थंबनेल देखकर ही आप लोगों को लग रहा होगा कि क्या उलटा पुलटा लिख दिया है। लेकिन दोस्तों यह सच है। और यह सच महर्षि कंबन की रामायण ‘इरामावतारम्’ में भी है। जिसे तमिल भाषा में लिखा गया है। तो आइए जानते हैं कि कैसे रावण भगवान राम पर इतना मेहरबान हुआ कि उसने युद्ध से पहले ही राम और सीता का मिलन करवाया था। हालांकि यह मिलन शर्तों के साथ कुछ क्षणों के लिए ही हुआ था, इसके बाद सीता जी को रावण वापस ले गया था। बाद में भगवान राम ने युद्ध में उसे मारकर सीता जी को मुक्त करवाया था। आइए जानते हैं िवस्तार से
बाल्मीकि रामायण के अनुसार रावण , ॠषि विश्वश्रवा का पुत्र एवं पुलस्त्य मुनि का पोता था । रावण की मां कैकेसी थी जो कि ऋषि विश्वश्रवा की दूसरी पत्नी थी। उनकी पहली पत्नी इलाविडा थीं, जो कुबेर की मां थी। यानि रावण और कुबेर आपस में भाई थे। कैकेसी राक्षस कुल की थी इसलिए इसलिए रावण आधा ब्राहम्ण और आधा रााक्षस कुल का था।
जब भगवान राम ने लंका पर चढ़ाई करने के लिए सेतु का निर्माण कर लिया। तब उन्होंने युद्ध शुरू करने से पहले वहां पर रामेश्वरम शिवलिंग की स्थापना करनी चाही। इसके लिए उन्होंने यज्ञ करने का संकल्प लिया। इसके लिए उन्होंने जामवंतजी से कहा कि आस-पास से कोई पुरोहित, पुजारी या फिर कोई भी आचार्य ढूढ़कर लाइए जो इस यज्ञ को संपन्न करवा सके। इस पर जामवंतजी बोले, ‘हे प्रभु यहां जंगल में समुद्र तट पर पेड़ पौधे वन्यजीव के अलावा क्या मिलेगा?’ इस पर श्रीराम बोले कि आचार्य ऐसा होना चाहिए जो शैव और वैष्णव दोनों परंपराओं का ज्ञाता हो। इस पर जामवंतजी ने कहा कि ऐसा तो केवल एक ही व्यक्ति है, लेकिन वह हमारा शत्रु है। पुलत्स्य मुनि का नाती है, वैष्णव है, शिव भक्त है और दोनों परंपराओं को जानता है। राम ने कहा कि ठीक है आप बात करें और यज्ञ का निमंत्रण दें।
जामवंतजी पहुंचे लंका
श्रीराम की आज्ञा पाकर जामवंतजी लंका पहुंचे, क्योंकि रावण ही वह व्यक्ति था, जिसमें ये सारी खूबियां थीं। जब रावण को पता लगा कि जामवंतजी लंका आए हैं तो वह काफी उत्सुक हो गया। दरअसल जामवंतजी रावण के दादा के मित्र थे, इसलिए रावण उनका सम्मान करता था। उसने यह आदेश दे दिया कि महल तक आने में उन्हें तकलीफ न हो। इसलिए जगह-जगह राक्षस खड़े होकर उन्हें रास्ता बताते रहें। ऐसा ही हुआ और जामवंतीजी रावण के पास पहुंच गए।
रावण ने जामवंत से पूछा यह प्रश्न
रावण ने जामवंतजी को दंडवत प्रणाम करते हुए उन्हें बैठने का आसन दिया और फिर उनसे लंका आने का आशय पूछा। जामवंतजी ने बताया, ‘मेरे यजमान को अपने विशेष कार्यसिद्धि के लिए यज्ञ करना है और उसके लिए आपको पुरोहित के तौर पर आमंत्रण देने आया हूं।’ फिर रावण ने पूछा कि आपके यजमान कौन हैं तो जामवंत ने कहा कि वह अयोध्या के राजकुमार और महाराज दशरथ के पुत्र श्रीराम हैं और अपने एक बड़े काम के लिए शिवलिंग स्थापित करना चाहते हैं, इसके लिए उन्हें एक यज्ञ करना है। रावण ने पूछा कि क्या यह बड़ा काम लंका विजय तो नहीं है? जामवंतजी ने कहा कि हां यही काम है।
रावण प्रतिभाशाली था, वो समझ गया कि आज तक मुझे किसी ने आचार्य का पद नहीं दिया। और आज स्वयं उनके पितामह के मित्र जामवंत आकर उन्हें श्रीराम का आचार्य बनने का निमंत्रण दे रहे हैं। इससे अच्छा मौका नहीं मिलेगा, इसलिए उसने अपने आधे ब्राह्मण होने का गुण और संसकार का परिचय देते हुए यज्ञ में आने की हामी भर दी।
फिर रावण ने किया यह काम
रावण द्वारा न्यौता स्वीकार करने के बाद जामवंतजी ने पूछा कि यज्ञ के लिए क्या-क्या सामग्री चाहिए, इसके बारे में आप मुझे बता दें। इस पर रावण बोला कि जब यजमान वनवासी हो तो शास्त्रों के अनुसार यह पुरोहित का कर्तव्य है कि वह सभी सामान की व्यवस्था करे तो आप चिंता न करें, मैं सब सामान अपने साथ लेकर आऊंगा। बस आप मेरे यजमान को बोल दीजिएगा कि वह स्नान करके व्रत के साथ यज्ञ में बैठ जाएं। चूंकि शास्त्रों में यज्ञ अर्द्धांगिनी के बिना पूर्ण नहीं माना जाता, इसलिए रावण सीता के पास भी गया।
सीता को बोली यह बात
रावण ने अशोक वाटिका में पहुंचकर सीता को बताया कि तुम्हारे पति राम लंका पर विजय के लिए यज्ञ करना चाहते हैं और पुरोहित मुझे चुना है तो यज्ञ की सारी व्यवस्था के साथ उनकी अर्द्धांगिनी को भी उपलब्ध करवान मेरा कर्तव्य है। इसलिए तुम इस पुष्पक विमान में बैठ जाओ। लेकिन ध्यान रखना कि वहां भी तुम मेरी कैद में ही रहोगी। यह सुनकर देवी सीता ने रावण को आचार्य मानकर प्रणाम किया और बोला कि जो मेरे स्वामी के आचार्य हैं वह मेरे भी आचार्य हुए। रावण ने भी सीता को अखंड सौभाग्यवती भव का आशीर्वाद दिया।
रावण सीता को लेकर पहुंचा यज्ञ करवाने
उसके बाद रावण आचार्य के तौर पर देवी सीता को लेकर यज्ञ करवाने के लिए पहुंच गए। फिर हनुमानजी को पूजा के लिए शिवलिंग लाने को भेजा गया। पूजा में देर होने लगी तो आचार्य रावण ने कहा कि और विलंब नहीं किया जा सकता। फिर देवी सीता ने विलंब किए बिना समुद्र तट पर अपने हाथ से ही मिट्टी का शिवलिंग बना दिया और उसकी ही स्थापना कर दी गई, जो कि आज भी भगवान शिव के 11 ज्योर्तिलिंगों में से एक है। फिर कुछ देर बाद हनुमानजी भी अपना शिवलिंग लेकर आ गए तो राम ने कहा कि अब तो शिवलिंग की स्थापना हो चुकी। तब भी हनुमान नहीं माने तो राम ने कहा, आप इस शिवलिंग को हटाकर अपना वाला शिवलिंग यहां रख दें। लेकिन हनुमानजी उस शिवलिंग को नहीं हिला सके तो उनका वाला शिवलिंग भी वहीं पास में ही स्थापित कर दिया गया। आज भी हनुमानजी द्वारा स्थापित शिवलिंग वहां स्थित है, जिसे हनुमानेश्वर के नाम से जाना जाता है।
रावण ने मांगी यह दक्षिणा
यज्ञ संपन्न होने के बाद राम और सीता ने आचार्य रावण को प्रणाम किया और दक्षिणाा मांगने को कहा। रावण ने कहा कि आप वनवासी हैं तो मैं आपसे दक्षिणा नहीं ले सकता। मेरी दक्षिणा आप पर उधार रही। राम ने कहा कि आचार्य आप अपनी दक्षिणा बता दें ताकि समय आने पर हम देने के लिए तैयार रहें। रावण ने दक्षिणा के रूप में कहा कि जब मेरा अंतिम समय आए तो मेरा यजमान मेरे सामने रहे। यह कहकर रावण देवी सीता को अपने साथ वापस पुष्पक विमान में लेकर चला गया
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
Thanks