मंगलवार, 16 अगस्त 2022

ऋषि, मुनि, साधु और संन्यासी में क्या अंतर है?

 जय श्री कृष्णा

नमस्कार साथियों 



आप देख रहे हैं कालचक्र। आज हम बात करेंगे कि ऋषि, मुनि, साधु, संत और संन्यासी के बीच के अंतर पर। क्योंकि यह सभी अलग-अलग है। लेकिन ज्यादातर लोग इनका अर्थ एक ही समझते हैं। जबकि यह एक तरह से वैदिक काल की डिग्रियों जैसा है। जैसे की आजकल डिप्लोमा और डिग्री होती है। आइए जानते हैं कि यह एक दूसरे से किस तरह से भिन्न हैं। 


भारत में प्राचीन समय से ही ऋषि-मुनियों का विशेष महत्व रहा है। क्योंकि ये समाज के पथ प्रदर्शक माने जाते थे। ऋषि-मुनि अपने ज्ञान और तप के बल पर समाज कल्याण का कार्य करते थे और लोगों को समस्याओं से मुक्ति दिलाते थे। आज भी तीर्थ स्थल, जंगल और पहाड़ों में कई साधु-संत देखने को मिल जाते हैं। लेकिन क्या आपको पता है कि साधु, संत, ऋषि, महर्षि आदि यह सब अलग-अलग होते हैं। क्योंकि ज्यादातर लोग इनका अर्थ एक ही समझते हैं। आइए जानते हैं कि ऋषि, महर्षि, मुनि, साधु, संत और संत में क्या अंतर है और उनके बारे में क्या मान्यताएं हैं…।


ऋषि

'ऋषि' वैदिक परंपरा से लिया गया शब्द है। ऋषि वो लोग कहलाए जिन्होंने पूर्व में बोले गए ग्रंथों को लिपिबद्ध किया। इन ग्रंथों को श्रुति ग्रंथ कहा जाता है। क्योंकि यह ज्यादातर ग्रंथ भगवान के बोले हुए हैं। जिन्हें गुरु शिष्य की परंपरा में कई पीढ़ियों तक सिर्फ सुना गया था। इसके बाद कुछ विशेष बुद्धि वाले लोग आए और उन सुने हुए ग्रंथों का अध्ययन कर समझा। इतना ज्यादा गहराई से समझा  कि वो चीजे उनके मन के अंदर रीक्रिएट हुई। इस पर उन्होंने समाज के कल्याण के लिए उसे कागजों पर उतारा।

'ऋषि' वैदिक परंपरा से लिया गया शब्द है। जिसे श्रुति ग्रंथों को दर्शन करने वाले लोगों के लिए प्रयोग किया जाता है।  ऐसे व्यक्ति जिन्होंने अपनी विशिष्ट और विलक्षण एकाग्र शक्ति के बल पर वैदिक परंपरा का अध्ययन किया और विलक्षण शब्दों के दर्शन किये और उनके गूढ़ अर्थों को जाना और प्राणी मात्र के कल्याण हेतु उस ज्ञान को लिखकर प्रकट किया 'ऋषि' कहलाये। ऋषि को सैकड़ों सालों के तप या ध्यान के कारण सीखने और समझने के उच्च स्तर पर माना जाता है। वैदिक काल में सभी ऋषि गृहस्थ आश्रम से आते थे। ऋषि पर किसी तरह का क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार और ईर्ष्या आदि की कोई रोकटोक नहीं है और ना ही किसी भी तरह का संयम का उल्लेख मिलता है। ऋषि अपने योग के माध्यम से परमात्मा को प्राप्त हो जाते थे और अपने सभी शिष्यों को आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे। वे भौतिक पदार्थ के साथ-साथ उसके पीछे छिपी ऊर्जा को भी देखने में सक्षम थे। हमारे पुराणों में सप्त ऋषि का उल्लेख मिलता है, जो केतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरा, वशिष्ठ तथा भृगु हैं।

'ऋषि: तु मन्त्र द्रष्टारा : न तु कर्तार 

अर्थात ऋषि मंत्र को देखने वाले हैं न कि उस मन्त्र की रचना करने वाले। यद्यपि वैदिक ऋचाओं के रचयिताओं को ही ऋषि का दर्जा प्राप्त है।


महर्षि

ऋषि से भी ज्यादा जानकार लोग महर्षि कहलाए। ज्ञान और तप की उच्चतम सीमा पर पहुंचने वाले व्यक्ति को महर्षि कहा जाता है। इनसे ऊपर केवल ब्रह्मर्षि माने जाते हैं। हम सभी में तीन प्रकार के चक्षु होते हैं। ज्ञान चक्षु, दिव्य चक्षु और परम चक्षु। जिसका ज्ञान चक्षु जाग्रत हो जाता है, उसे ऋषि कहते हैं। जिसका दिव्य चक्षु जाग्रत होता है उसे महर्षि कहते हैं और जिसका परम चक्षु जाग्रत हो जाता है उसे ब्रह्मर्षि कहते हैं। इस कड़ी में अंतिम महर्षि का दर्जा दयानंद सरस्वती को प्राप्त है। जिन्होंने मूल मंत्रों को समझा और उनकी व्याख्या की। इसके बाद आज तक कोई व्यक्ति महर्षि नहीं हुआ। महर्षि मोह-माया से विरक्त होते हैं और परामात्मा को समर्पित हो जाते हैं।


मुनि

मुनि शब्द का अर्थ होता है मौन अर्थात शांति यानि जो मुनि होते हैं, वह बहुत कम बोलते हैं। मुनि मौन रखने की शपथ लेते हैं और वेदों और ग्रंथों का ज्ञान प्राप्त करते हैं। जो ऋषि साधना प्राप्त करते थे और मौन रहते थे उनको मुनि का दर्जा प्राप्त होता था। कुछ ऐसे ऋषियों को मुनि का दर्जा प्राप्त था, जो ईश्वर का जप करते थे और नारायण का ध्यान करते थे, जैसे कि नारद मुनि। मुनि मंत्रों को जपते हैं और अपने ज्ञान से एक व्यापक भंडार की उत्पत्ति करते हैं। मुनि शास्त्रों की रचना करते हैं और समाज के कल्याण के लिए रास्ता दिखाते हैं। मौन साधना के साथ-साथ जो व्यक्ति एक बार भोजन करता हो और 28 गुणों से युक्त हो, वह व्यक्ति ही मुनि कहलाता था।  मुनि भी एक तरह के ऋषि ही होते थे किन्तु उनमें राग द्वेष का आभाव होता था। भगवत गीता के अनुसार "जिनका चित्त दुःख से उद्विग्न नहीं होता, जो सुख की इच्छा नहीं करते और जो राग, भय और क्रोध से रहित हैं, ऐसे निश्चल बुद्धि वाले संत मुनि कहलाते हैं। 


साधु

साधना करने वाले व्यक्ति को साधु कहा जाता है। साधु होने के लिए विद्वान होने की जरूरत नहीं है क्योंकि साधना कोई भी कर सकता है। प्राचीन समय में कई व्यक्ति समाज से हटकर या समाज में रहकर किसी विषय की साधना करते थे और उससे विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करते थे। कई बार अच्छे और बुरे व्यक्ति में फर्क करने के लिए भी साधु शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसका कारण यह है कि साधना से व्यक्ति सीधा, सरल और सकारात्मक सोच रखने वाला हो जाता है। साथ ही वह लोगों की मदद करने के लिए हमेशा आगे रहता है। साथु का संस्कृत में अर्थ है सज्जन व्यक्ति । लघुसिद्धांत कौमुदी में साधु का वर्णन करते हुए लिखा गया है कि जो दूसरे का कार्य करे वह साधु है। साधु का एक अर्थ उत्तम भी होता है ऐसे व्यक्ति जिसने अपने छह विकार काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और मत्सर का त्याग कर दिया हो, साधु कहलाता है


सन्यासी 

'सन्यास' से 'सन्यासी' शब्द की उत्पत्ति हुई है, जिसका अर्थ त्याग करना होता है। सब कुछ त्याग करने वाले व्यक्ति को ही सन्न्यासी कहते हैं। संपत्ति , गृहस्थ जीवन , सांसारिक जीवन और समाज का त्याग करने वाला व्यक्ति 'सन्यासी' होता है। वह अपना सम्पूर्ण जीवन परहित और परोपकार के कार्यों में लगा देता है। ध्यान योग द्वारा अपने आराध्य की भक्ति में ही लीन रहता है।


संत

संत उस व्यक्ति को कहते हैं, जो सत्य का आचरण करता है और आत्मज्ञानी होता है। जैसे- संत कबीरदास, संत तुलसीदास, संत रविदास। ईश्वर के भक्त या धार्मिक पुरुष को भी संत कहते हैं। बहुत से साधु, महात्मा संत नहीं बन सकते क्योंकि घर-परिवार को त्यागकर मोक्ष की प्राप्ति के लिए चले जाते हैं। जो व्यक्ति संसार और अध्यात्म के बीच संतुलन बना लेता है, उसे संत कहते हैं। संत के अंदर सहजता शांत स्वभाव में ही बसती है। संत होना गुण भी है और योग्यता भी।


उम्मीद करते हैं दोस्तों यह विडियो आपको अच्छा लगा होगा और आप कुछ नया जाने हांेगे। अगर आपके मन में  इस टॉपिक से जुड़ा कोई सवाल  हो तो आप कमेंट कर पूछ सकते हैं, हम उसका उत्तर ढूंढने का प्रयास करेंगे। 

जल्द मिलेंगे इस तरह के ही एक नए टॉपकि के साथ एक नए विडियो में 

तब तक के लिए नमस्कार, देखते रहिए कालचक्र 

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