दोस्तों , क्या आप जानते हैं कि आधुनिक तीरंदाजी का जनक एकलव्य को माना जाता है। जबकि हम शुरू से सुनते आए हैं कि महाभारत में अर्जुन को सबसे बड़ा धर्नुरधर कहा गया है। इसके बावजूद आज के जमाने में जो तीरंदाजी प्रतियोगिताएं होती हैं, उसमें कोई भी खिलाड़ी अर्जुन की तरह बाण चलाना तो दूर पकड़ता तक नहीं है। आज तीरंदाजी के सभी खिलाड़ियों के तीर चलाने का पैटर्न महाभारत काल के एक धुर्नरधर एकलव्य जैसा है। यह सभी खिलाड़ी तीर को पकड़ने और चलाने के लिए अंगूठे का इस्तेमाल नहीं करते हैं। शायद यही एकलव्य की निशानी हमारे बीच बची है।
आइए जानते हैं एकलव्य ने कैसे सीखी थी यह धर्नुविद्या
महाभारत काल में गुरु द्रोणाचार्य धर्नुविद्या के सबसे बड़े ज्ञाता थे, क्योंकि उन्होंने यह विद्या सीधे परशुराम से सीखी थी। जब यह बात एकलव्य को पता चली तो वो गुरु द्रोणाचार्य के पास आया और काफी विनती की वो उसे धर्नुविद्या सिखाएं, लेकिन गुरु द्रोणाचार्य ने उसे शिक्षा देने से साफ मना कर दिया था। क्योंेकि वो जानते थे कि भविष्य में यह जरासंध जैसे पापियों का साथ देगा। इसलिए उन्होंने यह कहकर मना कर दिया कि वो इस समय राजगुरु है इसलिए वो सिर्फ राजा के पुत्रों को ही शिक्षा दे सकते हैं। अन्य किसी को नहीं।
फिर भी उसने द्रोणाचार्य की एक मूर्ति बनाई और उस मूर्ति को गुरु मान कर धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा। एकाग्रचित्त से साधना करते हुए अल्पकाल में ही एकलव्य धनुर्विद्या में अत्यन्त निपुण हो गया। एक दिन पाण्डव तथा कौरव राजकुमार गुरु द्रोण के साथ शिकार के लिए उसी वन में गए, जहां पर एकलव्य आश्रम बना कर धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था। राजकुमारों का कुत्ता भटक कर एकलव्य के आश्रम में जा पहुंचा। एकलव्य को देख कर वह भौंकने लगा। कुत्ते के भौंकने से एकलव्य की साधना में बाधा पड़ रही थी। इसलिए उसने अपने बाणों से कुत्ते का मुंह बंद कर दिया।
एकलव्य ने इस ढंग से बाण चलाये थे कि कुत्ते को किसी प्रकार की चोट नहीं लगी। जबकि कुत्ते का पूरा मुंह बाणों से भर गया था। इससे वो भौंक नहीं पा रहा था। कुत्ते के लौटने पर कौरव, पांडव तथा स्वयं द्रोणाचार्य यह धनुर्कौशल देखकर दंग रह गए और बाण चलाने वाले की खोज करते हुए एकलव्य के पास पहुंचे। उन्हें यह जानकर और भी आश्चर्य हुआ कि द्रोणाचार्य को मानस गुरु मानकर एकलव्य ने स्वयं ही अभ्यास से यह विद्या प्राप्त की है। कथा के अनुसार एकलव्य ने गुरुदक्षिणा के रूप में अपना अँगूठा काटकर द्रोणाचार्य को दे दिया था। हालांकि इसका एक सांकेतिक अर्थ यह भी है कि एकलव्य को अतिमेधावी जानकर द्रोणाचार्य ने उसे बिना अँगूठे के धनुष चलाने की विशेष विद्या का दान दिया हो। कहा जाता हैं कि अंगूठा कट जाने के बाद एकलव्य ने तर्जनी और मध्यमा अंगुली का प्रयोग कर तीर चलाने लगा। यहीं से तीरंदाजी करने के आधुनिक तरीके का जन्म हुआ। निःसन्देह यह बेहतर तरीका है और आजकल तीरंदाजी इसी तरह से होती है। वर्तमान काल में कोई भी व्यक्ति उस तरह से तीरंदाजी नहीं करता जैसा कि अर्जुन करता था।
एकलव्य को भगवान कृष्ण ने क्यों मारा था
प्रयाग के तटवर्ती प्रदेश में सुदूर तक फैला श्रृंगवेरपुर राज्य निषादराज हिरण्यधनु का था। एकलव्य हिरण्य धनु निषाद का पुत्र था। गंगा के तट पर अवस्थित श्रृंगवेरपुर उसकी सुदृढ़ राजधानी थी। हिरण्यधनु के मृत्यु के बाद एकलव्य वहां का राजा बना। विष्णु पुराण और हरिवंश पुराण के अनुसार एकलव्य अपनी विस्तारवादी सोच के चलते जरासंध से जा मिला था। जरासंध की सेना की तरफ से उसने मथुरा पर आक्रमण करके यादव सेना का लगभग सफाया कर दिया था।
यादव सेना के सफाया होने के बाद यह सूचना जब श्रीकृष्ण के पास पहुंचती है तो वे भी एकलव्य को देखने को उत्सुक हो जाते हैं। दाहिने हाथ में महज चार अंगुलियों के सहारे धनुष बाण चलाते हुए एकलव्य को देखकर वे समझ जाते हैं कि यह पांडवों और उनकी सेना के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। तब श्रीकृष्ण का एकलव्य से युद्ध होता है और इस युद्ध में एकलव्य वीरगति को प्राप्त होता है। यह भी कहा जाता है कि युद्ध के दौरान एकलव्य लापता हो गया था। अर्थात उसकी मृत्यु बाद में कैसे हुई इसका किसी को पता नहीं है।
एकलव्य के वीरगति को प्राप्त होने के बाद उसका पुत्र केतुमान सिंहासन पर बैठता है और वह कौरवों की सेना की ओर से पांडवों के खिलाफ लड़ता है। महाभारत युद्ध में वह भीम के हाथ से मारा जाता है। श्री कृष्ण ने एकलव्य का वध इसीलिए किया क्यूंकि वो अधर्म का साथ दे रहा था। अधर्मी राजा जरासंध की तरफ से युद्ध कर रहा था। और श्री कृष्ण का तो धरती पर अवतरित होने का कारण ही अधर्म को मिटाना था इसीलिए उन्होंने वही किया।
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