शुक्रवार, 26 अगस्त 2022

नंदी कथा

 



जय श्री कृष्णा

नमस्कार साथियों

आज के इस विडियो में हम जानेंगे भगवान शिव के वाहन नंदी की कहानी। नंदी कौन थे, भगवान शिव ने अपने वाहन के रूप में नंदी को ही क्यों चुना। भगवान शंकर के सभी गणों में नंदी सर्वेक्षेष्ठ क्यों है। नंदी को भोलेबाबा के गणों में सेनापति का दर्जा क्यों मिला। नंदी मंदिर के बाहर क्यों बैठते हैं। श्रद्धालु नंदी के कान में मनोकामना क्यों कहते हैं। नासिक में पंचवटी शिवमंदिर ही ऐसा क्यों है जहां शिवलिंग के सामने नंदी नहीं है। इन सभी सवालों के जवाब जानने के लिए देखिए आज का यह विडियो नंदी की कहानी।

 


प्राचीन काल में एक ऋषि थे शिलाद। उन्होंने ब्रह्मचारी रहने का निश्चय किया किन्तु जब उनके पिरों को ये पता चला कि शिलाद ने ब्रह्मचारी रहने का निश्चय किया है तो वे दुखी हो गए क्यूँकि जबतक शिलाद को पुत्र प्राप्ति ना हो, उनकी मुक्ति नहीं हो सकती थी। शिलाद विवाह नहीं करना चाहते थे किन्तु अपने पिरों के उद्धार के लिए पुत्र प्राप्ति की कामना से उन्होंने भगवान शिव की कई वर्षों तक घोर तपस्या की। उनकी तपस्या से महादेव प्रसन्न हुए और उन्हें अपने सामान ही एक पुत्र की प्राप्ति का वरदान दिया। उसके कुछ समय बाद शिलाद ने पुत्र प्राप्ति हेतु यज्ञ किया और भूमि को जोतते समय उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति हुई जिसे देख कर उन्हें अत्यंत आनद हुआ। पुत्र का नाम उन्होंने नंदी रखा, अर्थात आनंद।

एक बार मित्र एवं वरुण नामक दो आदित्य शिलाद मुनि के आश्रम में आये। वहाँ पर शिलाद और नंदी ने उनकी खूब सेवा की जिससे प्रसन्न होकर दोनों ने शिलाद को तो दीर्घायु होने का आशीर्वाद दिया किन्तु नंदी को बिना आशीर्वाद दिए वे जाने लगे। तब शिलाद मुनि ने दोनों से पूछा कि उन्होंने उनके पुत्र को आशीर्वाद क्यों नहीं दिया। इसपर दोनों ने बताया कि नंदी अल्पायु है और १६ वर्ष पूर्ण करते ही उसकी मृत्यु हो जाएगी। ये सुनकर शिलाद विलाप करने लगे। तब उन दोनों ने नंदी को महादेव की तपस्या करने को कहा।

फिर नंदी ने महादेव की कठोर तपस्या की जिससे महारुद्र प्रसन्न हो उन्हें दर्शन देने आये। जब उन्होंने वरदान माँगने को कहा तो नंदी ने सदैव उन्हें उनके सानिध्य में रहने का वरदान माँगा। तब महादेव ने उसे अमरता का वर दिया और अपने वाहन के रूप में स्वीकार किया। नंदी वही से महादेव के साथ कैलाश को चले गए और उनकी सेवा में रम गए।

जब शिलाद को ये पता चला कि भगवान शिव की कृपा से उनका पुत्र अजर-अमर हो गया है तो वे अत्यंत प्रसन्न हुए।

महादेव की सेवा करते हुए नंदी को बहुत दिन बीत गए और शिलाद अत्यंत वृद्ध हो गए। तब वे अपने पुत्र से मिलने कैलाश पहुँचे। नंदी अपने पिता को देख कर बड़े प्रसन्न हुए और उनकी खूब सेवा की। तब शिलाद ने नंदी से साथ चलने को कहा किन्तु नंदी ने उनकी आज्ञा ये कह कर ठुकरा दी कि उनके जीवन का उद्देश्य केवल भगवान शिव की सेवा करना ही है। तब शिलाद मुनि ने भगवान शिव से प्रार्थना की कि अब इस वृद्धावस्था में वे उनके पुत्र को उनके साथ भेज दें। ये सुनकर भगवान शंकर ने उन्हें अपने पिता के साथ जाने की आज्ञा दी।

नंदी महादेव की आज्ञा मानने को विवश थे, इसी कारण भरे मन से वे शिलाद के साथ लौट तो गए लेकिन उनके प्राण कैलाश में ही रह गए। अपने आराध्य से दूर होने के कारण नंदी का स्वास्थ्य प्रतिदिन बिगड़ने लगा। तब शिलाद ने उका विवाह मरुत कन्या सुयशा से करवा दिया ताकि गृहस्थ जीवन में वे रम जाएँ किन्तु इसका नंदी के स्वास्थ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और वे शीघ्र ही मरणासन्न अवस्था में पहुँच गए। जब शिलाद मुनि ने देखा कि उनके पुत्र के प्राण संकट में हैं तब उन्होंने भगवान शिव से उसे बचाने की प्रार्थना की। अपने भक्त को इस अवस्था में देख कर वे तुरंत आश्रम पहुँचे और नंदी को स्वस्थ कर दिया। तब शिलाद मुनि समझ गए कि नंदी महादेव के बिना जीवित नही रह सकता इसीलिए उन्होंने उसे सुयशा के साथ कैलाश जाने की आज्ञा दे दी।

एक बार महादेव देवी पार्वती के साथ अन्तःपुर में थे और उन्होंने नंदी को द्वार की रक्षा करने को कहा। तभी वहाँ महर्षि भृगु आये और महादेव के दर्शनों की इच्छा जताई। किन्तु नंदी ने उनसे कहा कि महादेव की आज्ञा अनुसार वे द्वार से नहीं हट सकते। इसपर महर्षि भृगु क्रोधित हो गए और उन्होंने नंदी को श्राप दिया कि वो जल्दी ही किसी के हाथों परास्त होगा। जब भगवान बाहर आये तो नंदी की स्वामी भक्ति से बड़े प्रसन्न हुए और उसे समस्त शिवगणों का अधिपति बना दिया और नंदीश्वर की उपाधि दी।

कुछ काल के बाद राक्षसराज रावण कैलाश पहुँचा और नंदी ने उसे रोका। तब रावण और नंदी के बीच भयंकर युद्ध हुआ किन्तु भृगु के श्राप के कारण रावण ने नंदी को परास्त कर दिया। उसे परास्त करने के बाद रावण ने उसे पशुमुख कह उसका उपहास किया। तब नंदी ने रावण को श्राप दिया कि किसी पशुमुख के कारण ही उसका विनाश होगा। उसी श्राप के कारण ही महादेव ने हनुमान के रूप में रुद्रावतार लिया और समस्त लंका को जला कर भस्म कर दिया।

नंदी को स्वामिभक्ति के साथ-साथ बल और कर्मठता का प्रतीक भी माना गया है। श्रीराम के अश्वमेघ यज्ञ के समय श्रीराम की सेना ने वीरमणि के राज्य पर आक्रमण किया तो शिवगणों के साथ उनका भयानक द्वन्द हुआ। उस युद्ध में नंदी ने स्वयं हनुमान को शिवास्त्र से बांध दिया था।

 जब देवी सती ने दक्ष के यज्ञकुंड में आत्मदाह कर लिया था तो वीरभद्र के आने से पहले नंदी ने अकेले ही दक्ष की सेना का संहार कर दिया था। यही नहीं कई जगह इस बात का भी वर्णन है कि श्रीगणेश और कार्तिकेय को अपनी पहली युद्ध शिक्षा नंदी से ही प्राप्त हुई थी।

एक कथा के अनुसार देवी पार्वती ने भगवान शिव से वेदों का रहस्य जानने का अनुरोध किया। ये ज्ञान इतना गूढ़ था कि भगवान शिव देवी पार्वती को लेकर अमरनाथ की गुफा में ले गए ताकि देवता भी इस रहस्य को ना जान सकें। मार्ग में वे चंद्र, वासुकि इत्यादि सभी चीजों का त्याग करते गए। गुफा में पहुँचकर वे नंदी को भी वही छोड़ते हुए कहते हैं कि "वत्स! मैं तुम्हे सबसे अंत में त्याग रहा हूँ क्यूंकि तुम मुझे सब प्रिय हो।" इसलिए ही नंदी भोलेबाबा को सबसे ज्यादा प्रिय हैं। 

वेदों का ज्ञान देने से पहले वे पार्वती से कहते हैं कि अगर उन्होंने ये ज्ञान पूरा ना सुना तो वे उनसे बिछड़ जाएँगी। देवी पार्वती के आश्वासन देने पर भगवान शिव कथा प्रारम्भ करते हैं किन्तु देवी बीच में ही सो जाती हैं। इस कारण वे शिव से दूर हो ग और अगले जन्म में एक मछुआरे के यहाँ जन्मी। उनके पिता ने शर्त रखी कि जो भी मछुआरा इस विश्व की सबसे बड़ी मछली को मरेगा वे उसी से बेटी का विवाह करेंगे। तब भगवान शिव एक मछुआरे के वेश में वहाँ आये और नंदी ने एक बहुत बड़ी मछली के रूप में अवतार लिया। तब मछुआरे रुपी शिव ने मछली रुपी नंदी का वध कर विवाह की शर्त पूरी की और देवी पार्वती को पुनः प्राप्त किया।

भगवान शिव सदैव समाधि में रमे रहते हैं इसी कारण उन्होंने नंदी को आज्ञा दी है कि वे उनके मंदिर के सामने बैठ कर उनके भक्तों की प्रार्थना सुने। इसी कारण हरेक शिव मंदिर में नंदी की प्रतिमा होती है और भक्त अपनी प्रार्थना उनके कान में कहते हैं जो सीधे महादेव तक पहुँचती है। बिना नंदी की प्रतिमा के शिव मंदिर अधूरा माना जाता है।

नासिक के पंचवटी में एकमात्र ऐसा शिव मंदिर है जहाँ नंदी की प्रतिमा नहीं है। कहते हैं कि ब्रह्मा के पांचवे सिर को काटने के कारण भगवान शंकर को ब्रह्महत्या का पाप लग गया। तब पंचवटी में गोदावरी के पास उन्हें एक बछड़ा मिला जो नंदी था। उसने भगवान शिव को गोदावरी के रामकुंड में स्नान करने को कहा। ऐसा करने पर वे ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो गए और उन्होंने नंदी को उस स्थान पर अपना गुरु माना और अपने सामने बैठने से मना कर दिया।

नंदी के विषय में एक कथा समुद्र मंथन की आती है। समुद्र मंथन में जब हलाहल निकला तब महदेव ने उसे पी लिया जिससे उनका कंठ नीला हो गया। हलाहल पीते समय कुछ बूंदें धरती पर गिर गयी। जब नंदी ने महादेव का कंठ देखा तो उसे बड़ा दुःख हुआ और उसने जमीन पर पड़ी हलाहल की बूंदों को अपनी जीभ से साफ कर दिया। इसे देख कर सभी हैरान रह गए और नंदी से इसका कारण पूछा। तब नंदी ने कहा कि जिस कष्ट को उनके स्वामी ने ग्रहण किया है वही कष्ट उसने भी ग्रहण किया। इसे देख कर देव एवं दैत्यों ने एक स्वर से नंदी की प्रशंसा की।

शिवगणों में नंदी का स्थान सबसे ऊँचा है। शिव पुराण के अनुसार भगवान शिव की सेना के आठ प्रमुख सेनापति हैं। ये हैं - गणेश, नंदी, देवी, चण्ड, महाकाल, ऋषभ, भृंगी और मुरुगण

उसी प्रकार नंदी को नंदिनाथ संप्रदाय का जनक माना जाता है। इस संप्रदाय में नंदी के आठ शिष्य माने गए हैं जो आठों दिशाओं में शैव धर्म के प्रचार हेतु गए। ये हैं - सनत, सनातन, सनन्दन, सनत्कुमार, तिरुमुलर, व्याघ्रपाद, पतञ्जलि और शिवयोग

 

रविवार, 21 अगस्त 2022

भारत के 10 सबसे रहस्यमय मंदिर



अगर आप हिंदू हैं और मंदिर जाना ठीक समझते हैं तो आपको यह विडियो देखना चाहिए। इस विडियो में भारत के ऐसे चुने हुए दस मंदिरों को दिखाया  गया है, जो न सिर्फ आस्था के केंद्र हैं, बल्कि कई रहस्यों को अपने में समेटे हुए हैं। आइए जानते हैं इन रहस्यमय मंदिरों का संक्षिप्त परिचय

   



1 स्तंभेश्वर महादेव मंदिर

कई पुराणों में इस तीर्थ स्थल के बारे में बताया गया है। महिसागर संगम तीर्थ की पावन भूमि पर भगवान शंकर के पुत्र कार्तिकेय ने एक शिवलिंग को  स्थापित किया था, जिसे श्री स्तंभेश्वर महादेव कहा गया है। ऐसी मान्यता है कि इसके दर्शन मात्र से व्यक्ति सभी कष्टों से मुक्त हो जाता है और उसकी सभी मनोकामना पूर्ण होती है। यह स्तंभेश्वरतीर्थ गुजरात के भरूच जिला के जंबुसर तहसील में कावी-कंबोई समुद्र तट पर है। मंदिर की विशेषता यह है कि समुद्र दिन में दो बार श्री स्तंभेश्वर शिवलिंग का स्वयं अभिषेक करता है। समुद्र का पानी बढ़ने पर मंदिर पानी में डूब जाता है और थोड़ी ही देर में पानी उतर भी जाता है।


 2 करणी माता का मंदिर, 

 करणी माता का यह मंदिर बीकानेर (राजस्थान) में स्थित है। यह बहुत ही अनोखा मंदिर है। इस मंदिर में रहते हैं लगभग 20 हजार काले चूहे। लाखों की संख्या में पर्यटक और श्रद्धालु यहां अपनी मनोकामना पूरी करने आते हैं। करणी देवी, जिन्हें दुर्गा का अवतार माना जाता है, के मंदिर को ‘चूहों वाला मंदिर’ भी कहा जाता है।

यहां चूहों को काबा कहते हैं और इन्हें बाकायदा भोजन कराया जाता है और इनकी सुरक्षा की जाती है। यहां इतने चूहे हैं कि आपको पांव घिसटाकर चलना पड़ेगा। अगर एक चूहा भी आपके पैरों के नीचे आ गया तो अपशकुन माना जाता है। कहा जाता है कि एक चूहा भी आपके पैर के ऊपर से होकर गुजर गया तो आप पर देवी की कृपा हो गई समझो और यदि आपने सफेद चूहा देख लिया तो आपकी मनोकामना पूर्ण हुई समझो।


3 पुरी का जगन्नाथ मंदिर

ओडिशा के नगर पुरी के तट पर भगवान जगन्नाथ का एक प्राचीन मंदिर स्थापित है। यहां आज भी भक्‍तों की काफी भीड़ होती है। कहा जाता है कि इस मंदिर के कलश अथवा शिखर की छाया नहीं बनती है। इसके अलावा इस मंदिर के ऊपर लगा झंडा हवा की विपरीत दिशा में लहराता है। इसके अलावा इसके गुंबद के आसपास कोई पक्षी नहीं उड़ता है। काफी जांच पड़ताल के बावजूद भी इन रहस्‍यों का खुलासा नहीं हो सका है। यहीं नहीं इस मंदिर में भगवान श्रीकृष्ण का हृदय अब तक संभालकर रखा गया है। इससे हर साल मूर्ति बदलते वक्त नई मूर्ति में स्थापित किया जाता है। यह काम करते वक्त पूरे शहर में लाइट को बंद कर दिया जाता है। यहां तक की इस कार्य को करने वाले पुजारी की आंखों में पट्टी बांध  दी जाती है। कहा जाता है कि अगर किसी ने उसे एक बार देख लिया तो वो जीवित नहीं बचता है। 


4 काल भैरव मंदिर

मध्य प्रदेश के उज्जैन शहर से करीब 8 कि.मी. दूर कालभैरव मंदिर है। यहां भगवान कालभैरव को प्रसाद के तौर पर केवल शराब ही चढ़ाई जाती है। शराब से भरे प्याले कालभैरव की मूर्ति के मुंह से लगाने पर वह देखते ही देखते खाली हो जाते हैं। मंदिर के बाहर भगवान कालभैरव को चढ़ाने के लिए देसी शराब की कई दुकानें हैं।

पुराणों के अनुसार, एक बार भगवान ब्रह्मा ने भगवान शिव का अपमान कर दिया था, इस बात से भगवान शिव बहुत क्रोधित हो गए और उनके नेत्रों से कालभैरव प्रकट हुए। क्रोधित कालभैरव ने भगवान ब्रह्मा का पांचवा सिर काट दिया था, जिसकी वजह से उन्हें ब्रह्म-हत्या का पाप लगा। इस पाप को दूर करने के लिए वह अनेक स्थानों पर गए, लेकिन उन्हें मुक्ति नहीं मिली। तब भैरव ने भगवान शिव की आराधना की। शिव ने भैरव को बताया कि उज्जैन में क्षिप्रा नदी के तट पर ओखर श्मशान के पास तपस्या करने से उन्हें इस पाप से मुक्ति मिलेगी। तभी से यहां काल भैरव की पूजा हो रही है। कालांतर में यहां एक बड़ा मंदिर बन गया। कहा जाता है मंदिर का निर्माण परमार वंश के राजाओं ने करवाया था।


5 कैलाश मानसरोवर : यहां साक्षात भगवान शिव विराजमान हैं। यह धरती का केंद्र है। दुनिया के सबसे ऊंचे स्थान पर स्थित कैलाश मानसरोवर के पास ही कैलाश पर्वत और आगे मेरू पर्वत स्थित है। यह संपूर्ण क्षेत्र शिव और देवलोक कहा गया है। रहस्य और चमत्कार से परिपूर्ण इस स्थान की महिमा वेद और पुराणों में भरी पड़ी है।

कैलाश पर्वत समुद्र सतह से 22,068 फुट ऊंचा है तथा हिमालय से उत्तरी क्षेत्र में तिब्बत में स्थित है। चूंकि तिब्बत चीन के अधीन है अतः कैलाश चीन में आता है, जो चार धर्मों- तिब्बती धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म और हिन्दू का आध्यात्मिक केंद्र है। कैलाश पर्वत की 4 दिशाओं से 4 नदियों का उद्गम हुआ है- ब्रह्मपुत्र, सिंधु, सतलुज व करनाली।


6 ज्वाला देवी मंदिर… ज्वालादेवी का मंदिर हिमाचल के कांगड़ा घाटी के दक्षिण में 30 किमी की दूरी पर स्थित है। यह मां सती के 51 शक्तिपीठों में से एक है। यहां माता की जीभ गिरी थी। हजारों वर्षों से यहां स्थित देवी के मुख से अग्नि निकल रही है। इस मंदिर की खोज पांडवों ने की थी।

इस जगह का एक अन्य आकर्षण ताम्बे का पाइप भी है जिसमें से प्राकृतिक गैस का प्रवाह होता है। इस मंदिर में अलग अग्नि की अलग-अलग 9 लपटें हैं, जो अलग-अलग देवियों को समर्पित हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार यह मृत ज्वालामुखी की अग्नि हो सकती है।

हजारों साल पुराने मां ज्वालादेवी के मंदिर में जो 9 ज्वालाएं प्रज्वलित हैं, वे 9 देवियों महाकाली, महालक्ष्मी, सरस्वती, अन्नपूर्णा, चंडी, विन्ध्यवासिनी, हिंगलाज भवानी, अम्बिका और अंजना देवी की ही स्वरूप हैं।

कहते हैं कि सतयुग में महाकाली के परम भक्त राजा भूमिचंद ने स्वप्न से प्रेरित होकर यह भव्य मंदिर बनवाया था। जो भी सच्चे मन से इस रहस्यमयी मंदिर के दर्शन के लिए आया है उसकी सारी मनोकामनाएं पूरी हो जाती है।


7 कन्याकुमारी मंदिर : समुद्री तट पर ही कुमारी देवी का मंदिर है, जहां देवी पार्वती के कन्या रूप को पूजा जाता है। मंदिर में प्रवेश के लिए पुरुषों को कमर से ऊपर के वस्त्र उतारने पड़ते हैं। प्रचलित कथा के अनुसार देवी का विवाह संपन्न न हो पाने के कारण बच गए दाल-चावल बाद में कंकर बन गए। आश्चर्यजनक रूप से कन्याकुमारी के समुद्र तट की रेत में दाल और चावल के आकार और रंग-रूप के कंकर बड़ी मात्रा में देखे जा सकते हैं।


कन्याकुमारी अपने सूर्योदय के दृश्य के लिए काफी प्रसिद्ध है। सुबह हर होटल की छत पर पर्यटकों की भारी भीड़ सूरज की अगवानी के लिए जमा हो जाती है। शाम को अरब सागर में डूबते सूरज को देखना भी यादगार होता है। उत्तर की ओर करीब 2-3 किलोमीटर दूर एक सनसेट प्वॉइंट भी है।


8 राजराजेश्वरी मंदिर बिहार में


बिहार में यह मंदिर देवी देवी दुर्गा को समर्पित है। देवी दुर्गा ही नहीं इस मंदिर में और भी कई देवी प्रतिमाएं स्थापित की गई हैं। इस मंदिर में हर रात, किसी के बोलने की आवाज़ पड़ोस के लोगों द्वारा सुनी जाती है। इस मंदिर के आस-पास के लोगों का दावा है कि ये ध्वनियाँ एक-दूसरे के साथ बात करने वाली देवी देवताओं की आवाज़ हैं। अब तक किसी को भी रात में इस मंदिर में प्रवेश करने की अनुमति नहीं है।


9 जगनाथार मंदिर उत्तर प्रदेश में


यह मंदिर कानपुर शहर में मौजूद है। इस मंदिर की वास्तुकला बहुत अलग है और स्थानीय लोगों द्वारा इसे मानसून मंदिर कहा जाता है। मंदिर के गर्भगृह के ऊपर एक छिद्र है। रहस्य यह है कि अगर पानी की बूंदें ज्यादा गिरती हैं तो अगले हफ्ते भारी बारिश या बाढ़ आ जाएगी। यदि पानी की बूंदें कम हो जाती हैं तो इस क्षेत्र में जल्द ही सूखा पड़ेगा।


10 कामाख्या मंदिर

पूर्वोत्तर भारत के राज्य असम में गुवाहाटी के पास स्थित कामाख्या देवी मंदिर देश के 51 शक्तिपीठों में सबसे प्रसिद्ध है। लेकिन इस अति प्राचीन मंदिर में देवी सती या मां दुर्गा की एक भी मूर्ति नहीं है। पौराणिक आख्यानों के अनुसार इस जगह देवी सती की योनि गिरी थी, जो समय के साथ महान शक्ति-साधना का केंद्र बनी। कहते हैं यहां हर किसी कामना सिद्ध होती है। यही कारण इस मंदिर को कामाख्या कहा जाता है।


शनिवार, 20 अगस्त 2022

आचार्य रावण ने करवाया था राम-सीता मिलन





 आचार्य रावण ने करवाया था राम-सीता मिलन 


जय श्रीकृष्णा

नमस्कार साथियों

थंबनेल देखकर ही आप लोगों को लग रहा होगा कि क्या उलटा पुलटा लिख दिया है। लेकिन दोस्तों यह सच है। और यह सच महर्षि कंबन की रामायण ‘इरामावतारम्’ में भी है। जिसे तमिल भाषा में लिखा गया है। तो आइए जानते हैं कि कैसे रावण भगवान राम पर इतना मेहरबान हुआ कि उसने युद्ध से पहले ही राम और सीता का मिलन करवाया था। हालांकि यह मिलन शर्तों के साथ कुछ क्षणों के लिए ही हुआ था, इसके बाद सीता जी को रावण वापस ले गया था। बाद में  भगवान राम ने युद्ध में उसे मारकर सीता जी को मुक्त करवाया था। आइए जानते हैं िवस्तार से



बाल्मीकि रामायण के अनुसार रावण , ॠषि विश्वश्रवा का पुत्र एवं पुलस्त्य मुनि का पोता था । रावण की मां कैकेसी थी जो कि ऋषि विश्वश्रवा की दूसरी पत्नी थी। उनकी पहली पत्नी इलाविडा थीं, जो कुबेर की मां थी। यानि रावण और कुबेर आपस में भाई थे।  कैकेसी राक्षस कुल की थी इसलिए इसलिए रावण आधा ब्राहम्ण और आधा रााक्षस कुल का था। 


जब भगवान राम ने लंका पर चढ़ाई करने के लिए सेतु का निर्माण कर लिया। तब उन्होंने युद्ध शुरू करने से पहले वहां पर रामेश्वरम शिवलिंग की स्थापना करनी चाही। इसके लिए उन्होंने  यज्ञ करने का संकल्प लिया। इसके लिए उन्होंने जामवंतजी से कहा कि आस-पास से कोई पुरोहित, पुजारी या फिर कोई भी आचार्य ढूढ़कर लाइए जो इस यज्ञ को संपन्न करवा सके। इस पर जामवंतजी बोले, ‘हे प्रभु यहां जंगल में समुद्र तट पर पेड़ पौधे वन्‍यजीव के अलावा क्‍या मिलेगा?’ इस पर श्रीराम बोले कि आचार्य ऐसा होना चाहिए जो शैव और वैष्‍णव दोनों परंपराओं का ज्ञाता हो। इस पर जामवंतजी ने कहा कि ऐसा तो केवल एक ही व्‍यक्ति है, लेकिन वह हमारा शत्रु है। पुलत्‍स्‍य मुनि का नाती है, वैष्‍णव है, शिव भक्‍त है और दोनों परंपराओं को जानता है। राम ने कहा कि ठीक है आप बात करें और यज्ञ का निमंत्रण दें।

जामवंतजी पहुंचे लंका

श्रीराम की आज्ञा पाकर जामवंतजी लंका पहुंचे, क्‍योंकि रावण ही वह व्‍यक्ति था, जिसमें ये सारी खूबियां थीं। जब रावण को पता लगा कि जामवंतजी लंका आए हैं तो वह काफी उत्‍सुक हो गया। दरअसल जामवंतजी रावण के दादा के मित्र थे, इसलिए रावण उनका सम्‍मान करता था। उसने यह आदेश दे दिया कि महल तक आने में उन्‍हें तकलीफ न हो। इसलिए जगह-जगह राक्षस खड़े होकर उन्‍हें रास्ता बताते रहें। ऐसा ही हुआ और जामवंतीजी रावण के पास पहुंच गए।


रावण ने जामवंत से पूछा यह प्रश्‍न

रावण ने जामवंतजी को दंडवत प्रणाम करते हुए उन्हें बैठने का आसन दिया और फिर उनसे लंका आने का आशय पूछा। जामवंतजी ने बताया, ‘मेरे यजमान को अपने विशेष कार्यसिद्धि के लिए यज्ञ करना है और उसके लिए आपको पुरोहित के तौर पर आमंत्रण देने आया हूं।’ फिर रावण ने पूछा कि आपके यजमान कौन हैं तो जामवंत ने कहा कि वह अयोध्‍या के राजकुमार और महाराज दशरथ के पुत्र श्रीराम हैं और अपने एक बड़े काम के लिए शिवलिंग स्‍थापित करना चाहते हैं, इसके लिए उन्‍हें एक यज्ञ करना है। रावण ने पूछा कि क्‍या यह बड़ा काम लंका विजय तो नहीं है? जामवंतजी ने कहा कि हां यही काम है।

रावण प्रतिभाशाली था, वो समझ गया कि आज तक मुझे किसी ने आचार्य का पद नहीं दिया। और आज स्वयं उनके पितामह के मित्र जामवंत आकर उन्हें श्रीराम का आचार्य बनने का निमंत्रण दे रहे हैं। इससे अच्छा मौका नहीं मिलेगा, इसलिए उसने अपने आधे ब्राह्मण होने का गुण और संसकार का परिचय देते हुए  यज्ञ में आने की हामी भर दी।


फिर रावण ने किया यह काम

रावण द्वारा न्‍यौता स्‍वीकार करने के बाद जामवंतजी ने पूछा कि यज्ञ के लिए क्‍या-क्‍या सामग्री चाहिए, इसके बारे में आप मुझे बता दें। इस पर रावण बोला कि जब यजमान वनवासी हो तो शास्‍त्रों के अनुसार यह पुरोहित का कर्तव्‍य है कि वह सभी सामान की व्‍यवस्‍था करे तो आप चिंता न करें, मैं सब सामान अपने साथ लेकर आऊंगा। बस आप मेरे यजमान को बोल दीजिएगा कि वह स्‍नान करके व्रत के साथ यज्ञ में बैठ जाएं। चूंकि शास्‍त्रों में यज्ञ अर्द्धांगिनी के बिना पूर्ण नहीं माना जाता, इसलिए रावण सीता के पास भी गया।


सीता को बोली यह बात

रावण ने अशोक वाटिका में पहुंचकर सीता को बताया कि तुम्‍हारे पति राम लंका पर विजय के लिए यज्ञ करना चाहते हैं और पुरोहित मुझे चुना है तो यज्ञ की सारी व्‍यवस्‍था के साथ उनकी अर्द्धांगिनी को भी उपलब्‍ध करवान मेरा कर्तव्‍य है। इसलिए तुम इस पुष्‍पक विमान में बैठ जाओ। लेकिन ध्‍यान रखना कि वहां भी तुम मेरी कैद में ही रहोगी। यह सुनकर देवी सीता ने रावण को आचार्य मानकर प्रणाम किया और बोला कि जो मेरे स्‍वामी के आचार्य हैं वह मेरे भी आचार्य हुए। रावण ने भी सीता को अखंड सौभाग्‍यवती भव का आशीर्वाद दिया।


रावण सीता को लेकर पहुंचा यज्ञ करवाने

उसके बाद रावण आचार्य के तौर पर देवी सीता को लेकर यज्ञ करवाने के लिए पहुंच गए। फिर हनुमानजी को पूजा के लिए शिवलिंग लाने को भेजा गया। पूजा में देर होने लगी तो आचार्य रावण ने कहा कि और विलंब नहीं किया जा सकता। फिर देवी सीता ने विलंब किए बिना समुद्र तट पर अपने हाथ से ही मिट्टी का शिवलिंग बना दिया और उसकी ही स्‍थापना कर दी गई, जो कि आज भी भगवान शिव के 11 ज्‍योर्तिलिंगों में से एक है। फिर कुछ देर बाद हनुमानजी भी अपना शिवलिंग लेकर आ गए तो राम ने कहा कि अब तो शिवलिंग की स्‍थापना हो चुकी। तब भी हनुमान नहीं माने तो राम ने कहा, आप इस शिवलिंग को हटाकर अपना वाला शिवलिंग यहां रख दें। लेकिन हनुमानजी उस शिवलिंग को नहीं हिला सके तो उनका वाला शिवलिंग भी वहीं पास में ही स्‍थापित कर दिया गया। आज भी हनुमानजी द्वारा स्‍थापित शिवलिंग वहां स्थित है, जिसे हनुमानेश्‍वर के नाम से जाना जाता है।


रावण ने मांगी यह दक्षिणा

यज्ञ संपन्‍न होने के बाद राम और सीता ने आचार्य रावण को प्रणाम किया और दक्षिणाा मांगने को कहा। रावण ने कहा कि आप वनवासी हैं तो मैं आपसे दक्षिणा नहीं ले सकता। मेरी दक्षिणा आप पर उधार रही। राम ने कहा कि आचार्य आप अपनी दक्षिणा बता दें ताकि समय आने पर हम देने के लिए तैयार रहें। रावण ने दक्षिणा के रूप में कहा कि जब मेरा अंतिम समय आए तो मेरा यजमान मेरे सामने रहे। यह कहकर रावण देवी सीता को अपने साथ वापस पुष्‍पक विमान में लेकर चला गया



शुक्रवार, 19 अगस्त 2022

भगवान श्रीकृष्ण से जुड़े दस रोचक तथ्य



https://youtu.be/x9UTMWh80H4


1 श्रीकृष्ण पांडव के ननिहाल पक्ष से आते हैं।  पांडवों की माता कुंती, वासुदेव की बहन थीं, जो श्री कृष्ण के पिता थे।


2 श्रीकृष्ण इतने शक्तिशाली हैं कि उन्होंने अपने गुरु संदीपनी के मरे हुए पुत्र को जीवित कर अपने गुरु को गुरुदक्षिणा के रूप में दिया।


 3 श्रीकृष्ण ने देवकी के छह पुत्रों को भी पुनर्जीवित किया। देवकी के यह छह पुत्र पिछले जन्म में कालनेमि के पुत्र थे, और उन्हें हिरण्यकश्यप ने श्राप दिया था कि वे अपने पिता के कारण मर जाएंगे। अगले जन्म में कंस ने देवकी के छह पुत्रों को मार डाला। उनके नाम थे हम्सा, सुविक्रम, कृत, दमन, रिपुमर्दन, और क्रोधादहन।


4 जब दुर्वासा श्री कृष्ण की उपस्थिति में खीर खा रहे थे, तो उन्होंने श्री कृष्ण को आदेश दिया की वह अपने शरीर के बाए भाग पर खीर लगाए। कृष्ण इसे अपने शरीर पर लगाने के लिए सहमत हुए, लेकिन उन्होंने यह सोचकर अपने पैरों पर इसे लागू नहीं किया, कि खीर अपनी पवित्रता खो देगी। इस पर दुर्वासा ने नाराज होकर उन्हें श्राप दे दिया कि कृष्ण ने मेरे आदेशों का पालन नहीं किया, इसीलिए उनके पैर अभेद्य और अखंड होने की गुणवत्ता खो देंगे। इसी तरह यह अभिशाप कृष्ण के अंत का कारण बन गया जब एक शिकारी ने एक तीर से कृष्ण जी के पैर को चोट पहुंचाई, और वह दुनिया से चले गए। 


5 महाभारत के समय उनकी आयु ७२ वर्ष बताई गयी है। महाभारत के पश्चात पांडवों ने ३६ वर्ष शासन किया और श्रीकृष्ण की मृत्यु के तुरंत बाद ही उन्होंने भी अपने शरीर का त्याग कर दिया। इस गणना से श्रीकृष्ण की आयु उनकी मृत्यु के समय लगभग १०८ वर्ष थी। ये संख्या हिन्दू धर्म में बहुत ही पवित्र मानी जाती है। यही नहीं, परगमन के समय ना श्रीकृष्ण का एक भी बाल श्वेत था और ना ही शरीर पर कोई झुर्री थी।



 6 पहले अवतार में, भगवान राम ने बाली को मार डाला, और उन्होंने तारा (बाली की विधवा) को आश्वासन दिया कि बाली अपने अगले जन्म में बदला लेने में सक्षम होगा। बाली को ही जारा के रूप में पुनर्जन्म दिया गया था, और उसने एक सरल तीर के साथ पृथ्वी पर श्री कृष्ण का जीवन समाप्त कर दिया। यह गांधारी का श्राप था।


7 भगवान् कृष्ण की 16,108 रानियां थी, जिनमें से आठ राजपूत पत्नियाँ थीं, जिन्हें पटरानी या अष्टभैरव के नाम से जाना जाता था। अन्य 16,100 पत्नियाँ वे थीं जिन्हें श्रीकृष्ण ने भयंकर असुर नरकासुर के चंगुल से बचाया था। जब राक्षस नरकासुर ने अविवाहित लड़कियों को पकड़ लिया था कर वह उनके साथ नाजायज सम्बन्ध बनाता था तब श्रीकृष्ण ने उन लड़कियों को उसके चंगुल से बचाया था। समाज व् स्वयं उनका परिवार वालो ने उन्हें स्वीकार करने से मन कर दिया था, तब भगवान् कृष्ण ने उन्हें अपनी पत्नियों के रूप में जगह दी थी।


 8 श्रीकृष्ण के 80 बेटे थे जो आठ रानियों से पैदा हुए थे, प्रत्येक रानी ने 10 बेटों को जन्म दिया। उनमें से सबसे प्रसिद्ध थे। प्रद्युम्न, जो रुक्मिणी के पुत्र के रूप में थे; जांबवती का पुत्र सांब जो ऋषियों द्वारा शापित हो गया था और यही कारण था कि यदु वंश नष्ट हो गया। श्री कृष्ण ने भगवान शिव की तपस्या की थी ताकि उन्हें भगवान शिव जैसा पुत्र प्रापत हो।


 9 सुभद्रा, कृष्ण की बहन, वासुदेव और रोहिणी की बेटी थी और जब वासुदेव को जेल से मुक्त किया गया था तब उनका जन्म हुआ था। बलराम चाहते थे कि उनकी बहन सुभद्रा का विवाह दुर्योधन से हो, जो उनके पसंदीदा शिष्य थे। हालांकि, उनकी बहन, और परिवार के अन्य सदस्यों ने भी बलराम का विरोध किया गया था। भगवान् कृष्ण जानते थे के अर्जुन और सुभद्रा एक दूसरे से प्यार करते है। इसीलिए कृष्ण ने अर्जुन को सुभद्रा का अपहरण करने की सलाह दी, और सुभद्रा ने अर्जुन से इंद्रप्रस्थ में शादी कर ली।


10 शास्त्रों में कहीं भी राधा का उल्लेख नहीं किया गया है। इसका उल्लेख महाभारत या श्रीमद्भागवतम् में भी नहीं है। व्यास जी की पुस्तके पढ़ने वाला हर एक व्यक्ति चाहता है के राधा का जिक्र हो लेकिन उनके किसी भी शास्त्र में राधा का उल्लेख नहीं किया गया। इस बात को जयदेव ने अपनी पुस्तकों में शामिल किया और फिर वहीं से कृष्ण और राधा के बारे में लोगो को जानने को मिला।


 11 एकलव्य, वासुदेव के भाई देवश्रवा का पुत्र था। वह भगवान् कृष्ण के चचेरा भाई थे। एक दिन, वह जंगल में खो गया, और बाद में निशाडा हिरण्यधनु से मिला। वह अपने पिता की रक्षा करते हुए मर गया,उस दौरान रुक्मिणी अपने स्वयंवर में थी और कृष्ण ही थे


मंगलवार, 16 अगस्त 2022

ऋषि, मुनि, साधु और संन्यासी में क्या अंतर है?

 जय श्री कृष्णा

नमस्कार साथियों 



आप देख रहे हैं कालचक्र। आज हम बात करेंगे कि ऋषि, मुनि, साधु, संत और संन्यासी के बीच के अंतर पर। क्योंकि यह सभी अलग-अलग है। लेकिन ज्यादातर लोग इनका अर्थ एक ही समझते हैं। जबकि यह एक तरह से वैदिक काल की डिग्रियों जैसा है। जैसे की आजकल डिप्लोमा और डिग्री होती है। आइए जानते हैं कि यह एक दूसरे से किस तरह से भिन्न हैं। 


भारत में प्राचीन समय से ही ऋषि-मुनियों का विशेष महत्व रहा है। क्योंकि ये समाज के पथ प्रदर्शक माने जाते थे। ऋषि-मुनि अपने ज्ञान और तप के बल पर समाज कल्याण का कार्य करते थे और लोगों को समस्याओं से मुक्ति दिलाते थे। आज भी तीर्थ स्थल, जंगल और पहाड़ों में कई साधु-संत देखने को मिल जाते हैं। लेकिन क्या आपको पता है कि साधु, संत, ऋषि, महर्षि आदि यह सब अलग-अलग होते हैं। क्योंकि ज्यादातर लोग इनका अर्थ एक ही समझते हैं। आइए जानते हैं कि ऋषि, महर्षि, मुनि, साधु, संत और संत में क्या अंतर है और उनके बारे में क्या मान्यताएं हैं…।


ऋषि

'ऋषि' वैदिक परंपरा से लिया गया शब्द है। ऋषि वो लोग कहलाए जिन्होंने पूर्व में बोले गए ग्रंथों को लिपिबद्ध किया। इन ग्रंथों को श्रुति ग्रंथ कहा जाता है। क्योंकि यह ज्यादातर ग्रंथ भगवान के बोले हुए हैं। जिन्हें गुरु शिष्य की परंपरा में कई पीढ़ियों तक सिर्फ सुना गया था। इसके बाद कुछ विशेष बुद्धि वाले लोग आए और उन सुने हुए ग्रंथों का अध्ययन कर समझा। इतना ज्यादा गहराई से समझा  कि वो चीजे उनके मन के अंदर रीक्रिएट हुई। इस पर उन्होंने समाज के कल्याण के लिए उसे कागजों पर उतारा।

'ऋषि' वैदिक परंपरा से लिया गया शब्द है। जिसे श्रुति ग्रंथों को दर्शन करने वाले लोगों के लिए प्रयोग किया जाता है।  ऐसे व्यक्ति जिन्होंने अपनी विशिष्ट और विलक्षण एकाग्र शक्ति के बल पर वैदिक परंपरा का अध्ययन किया और विलक्षण शब्दों के दर्शन किये और उनके गूढ़ अर्थों को जाना और प्राणी मात्र के कल्याण हेतु उस ज्ञान को लिखकर प्रकट किया 'ऋषि' कहलाये। ऋषि को सैकड़ों सालों के तप या ध्यान के कारण सीखने और समझने के उच्च स्तर पर माना जाता है। वैदिक काल में सभी ऋषि गृहस्थ आश्रम से आते थे। ऋषि पर किसी तरह का क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार और ईर्ष्या आदि की कोई रोकटोक नहीं है और ना ही किसी भी तरह का संयम का उल्लेख मिलता है। ऋषि अपने योग के माध्यम से परमात्मा को प्राप्त हो जाते थे और अपने सभी शिष्यों को आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे। वे भौतिक पदार्थ के साथ-साथ उसके पीछे छिपी ऊर्जा को भी देखने में सक्षम थे। हमारे पुराणों में सप्त ऋषि का उल्लेख मिलता है, जो केतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरा, वशिष्ठ तथा भृगु हैं।

'ऋषि: तु मन्त्र द्रष्टारा : न तु कर्तार 

अर्थात ऋषि मंत्र को देखने वाले हैं न कि उस मन्त्र की रचना करने वाले। यद्यपि वैदिक ऋचाओं के रचयिताओं को ही ऋषि का दर्जा प्राप्त है।


महर्षि

ऋषि से भी ज्यादा जानकार लोग महर्षि कहलाए। ज्ञान और तप की उच्चतम सीमा पर पहुंचने वाले व्यक्ति को महर्षि कहा जाता है। इनसे ऊपर केवल ब्रह्मर्षि माने जाते हैं। हम सभी में तीन प्रकार के चक्षु होते हैं। ज्ञान चक्षु, दिव्य चक्षु और परम चक्षु। जिसका ज्ञान चक्षु जाग्रत हो जाता है, उसे ऋषि कहते हैं। जिसका दिव्य चक्षु जाग्रत होता है उसे महर्षि कहते हैं और जिसका परम चक्षु जाग्रत हो जाता है उसे ब्रह्मर्षि कहते हैं। इस कड़ी में अंतिम महर्षि का दर्जा दयानंद सरस्वती को प्राप्त है। जिन्होंने मूल मंत्रों को समझा और उनकी व्याख्या की। इसके बाद आज तक कोई व्यक्ति महर्षि नहीं हुआ। महर्षि मोह-माया से विरक्त होते हैं और परामात्मा को समर्पित हो जाते हैं।


मुनि

मुनि शब्द का अर्थ होता है मौन अर्थात शांति यानि जो मुनि होते हैं, वह बहुत कम बोलते हैं। मुनि मौन रखने की शपथ लेते हैं और वेदों और ग्रंथों का ज्ञान प्राप्त करते हैं। जो ऋषि साधना प्राप्त करते थे और मौन रहते थे उनको मुनि का दर्जा प्राप्त होता था। कुछ ऐसे ऋषियों को मुनि का दर्जा प्राप्त था, जो ईश्वर का जप करते थे और नारायण का ध्यान करते थे, जैसे कि नारद मुनि। मुनि मंत्रों को जपते हैं और अपने ज्ञान से एक व्यापक भंडार की उत्पत्ति करते हैं। मुनि शास्त्रों की रचना करते हैं और समाज के कल्याण के लिए रास्ता दिखाते हैं। मौन साधना के साथ-साथ जो व्यक्ति एक बार भोजन करता हो और 28 गुणों से युक्त हो, वह व्यक्ति ही मुनि कहलाता था।  मुनि भी एक तरह के ऋषि ही होते थे किन्तु उनमें राग द्वेष का आभाव होता था। भगवत गीता के अनुसार "जिनका चित्त दुःख से उद्विग्न नहीं होता, जो सुख की इच्छा नहीं करते और जो राग, भय और क्रोध से रहित हैं, ऐसे निश्चल बुद्धि वाले संत मुनि कहलाते हैं। 


साधु

साधना करने वाले व्यक्ति को साधु कहा जाता है। साधु होने के लिए विद्वान होने की जरूरत नहीं है क्योंकि साधना कोई भी कर सकता है। प्राचीन समय में कई व्यक्ति समाज से हटकर या समाज में रहकर किसी विषय की साधना करते थे और उससे विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करते थे। कई बार अच्छे और बुरे व्यक्ति में फर्क करने के लिए भी साधु शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसका कारण यह है कि साधना से व्यक्ति सीधा, सरल और सकारात्मक सोच रखने वाला हो जाता है। साथ ही वह लोगों की मदद करने के लिए हमेशा आगे रहता है। साथु का संस्कृत में अर्थ है सज्जन व्यक्ति । लघुसिद्धांत कौमुदी में साधु का वर्णन करते हुए लिखा गया है कि जो दूसरे का कार्य करे वह साधु है। साधु का एक अर्थ उत्तम भी होता है ऐसे व्यक्ति जिसने अपने छह विकार काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और मत्सर का त्याग कर दिया हो, साधु कहलाता है


सन्यासी 

'सन्यास' से 'सन्यासी' शब्द की उत्पत्ति हुई है, जिसका अर्थ त्याग करना होता है। सब कुछ त्याग करने वाले व्यक्ति को ही सन्न्यासी कहते हैं। संपत्ति , गृहस्थ जीवन , सांसारिक जीवन और समाज का त्याग करने वाला व्यक्ति 'सन्यासी' होता है। वह अपना सम्पूर्ण जीवन परहित और परोपकार के कार्यों में लगा देता है। ध्यान योग द्वारा अपने आराध्य की भक्ति में ही लीन रहता है।


संत

संत उस व्यक्ति को कहते हैं, जो सत्य का आचरण करता है और आत्मज्ञानी होता है। जैसे- संत कबीरदास, संत तुलसीदास, संत रविदास। ईश्वर के भक्त या धार्मिक पुरुष को भी संत कहते हैं। बहुत से साधु, महात्मा संत नहीं बन सकते क्योंकि घर-परिवार को त्यागकर मोक्ष की प्राप्ति के लिए चले जाते हैं। जो व्यक्ति संसार और अध्यात्म के बीच संतुलन बना लेता है, उसे संत कहते हैं। संत के अंदर सहजता शांत स्वभाव में ही बसती है। संत होना गुण भी है और योग्यता भी।


उम्मीद करते हैं दोस्तों यह विडियो आपको अच्छा लगा होगा और आप कुछ नया जाने हांेगे। अगर आपके मन में  इस टॉपिक से जुड़ा कोई सवाल  हो तो आप कमेंट कर पूछ सकते हैं, हम उसका उत्तर ढूंढने का प्रयास करेंगे। 

जल्द मिलेंगे इस तरह के ही एक नए टॉपकि के साथ एक नए विडियो में 

तब तक के लिए नमस्कार, देखते रहिए कालचक्र 

सोमवार, 15 अगस्त 2022

अर्जुन और कर्ण की बजाय एकलव्य को क्यों तीरंदाजी का जनक कहा गया है

 


दोस्तों , क्या आप जानते हैं कि आधुनिक तीरंदाजी का जनक एकलव्य को माना जाता है। जबकि हम शुरू से सुनते आए हैं कि महाभारत में अर्जुन को सबसे बड़ा धर्नुरधर कहा गया है। इसके बावजूद आज के जमाने में जो तीरंदाजी प्रतियोगिताएं होती हैं, उसमें कोई भी खिलाड़ी अर्जुन की तरह बाण चलाना तो दूर पकड़ता तक नहीं है। आज तीरंदाजी के सभी खिलाड़ियों के तीर चलाने का पैटर्न महाभारत काल के एक धुर्नरधर एकलव्य जैसा है। यह सभी खिलाड़ी तीर को पकड़ने और चलाने के लिए अंगूठे का इस्तेमाल नहीं करते हैं। शायद यही एकलव्य की निशानी हमारे बीच बची है। 

आइए जानते हैं एकलव्य ने कैसे सीखी थी यह धर्नुविद्या

महाभारत काल में गुरु द्रोणाचार्य धर्नुविद्या के सबसे बड़े ज्ञाता थे, क्योंकि उन्होंने यह विद्या सीधे परशुराम से सीखी थी। जब यह बात एकलव्य को पता चली तो वो गुरु द्रोणाचार्य के पास आया और काफी विनती की वो उसे धर्नुविद्या सिखाएं, लेकिन  गुरु द्रोणाचार्य ने उसे शिक्षा देने से साफ मना कर दिया था। क्योंेकि वो जानते थे कि भविष्य में यह जरासंध जैसे पापियों का साथ देगा। इसलिए उन्होंने यह कहकर मना कर दिया कि वो इस समय राजगुरु है इसलिए वो सिर्फ राजा के पुत्रों को ही शिक्षा दे सकते हैं। अन्य किसी को नहीं। 

 फिर भी उसने द्रोणाचार्य की एक मूर्ति बनाई और उस मूर्ति को गुरु मान कर धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा। एकाग्रचित्त से साधना करते हुए अल्पकाल में ही एकलव्य धनुर्विद्या में अत्यन्त निपुण हो गया। एक दिन पाण्डव तथा कौरव राजकुमार गुरु द्रोण के साथ शिकार के लिए उसी वन में गए, जहां पर एकलव्य आश्रम बना कर धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था। राजकुमारों का कुत्ता भटक कर एकलव्य के आश्रम में जा पहुंचा। एकलव्य को देख कर वह भौंकने लगा। कुत्ते के भौंकने से एकलव्य की साधना में बाधा पड़ रही थी। इसलिए उसने अपने बाणों से कुत्ते का मुंह बंद कर दिया। 

 एकलव्य ने इस ढंग से बाण चलाये थे कि कुत्ते को किसी प्रकार की चोट नहीं लगी। जबकि कुत्ते का पूरा मुंह बाणों से भर गया था। इससे वो भौंक नहीं पा रहा था। कुत्ते के लौटने पर कौरव, पांडव तथा स्वयं द्रोणाचार्य यह धनुर्कौशल देखकर दंग रह गए और बाण चलाने वाले की खोज करते हुए एकलव्य के पास पहुंचे। उन्हें यह जानकर और भी आश्चर्य हुआ कि द्रोणाचार्य को मानस गुरु मानकर एकलव्य ने स्वयं ही अभ्यास से यह विद्या प्राप्त की है। कथा के अनुसार एकलव्य ने गुरुदक्षिणा के रूप में अपना अँगूठा काटकर द्रोणाचार्य को दे दिया था। हालांकि इसका एक सांकेतिक अर्थ यह भी है कि एकलव्य को अतिमेधावी जानकर द्रोणाचार्य ने उसे बिना अँगूठे के धनुष चलाने की विशेष विद्या का दान दिया हो।  कहा जाता हैं कि अंगूठा कट जाने के बाद एकलव्य ने तर्जनी और मध्यमा अंगुली का प्रयोग कर तीर चलाने लगा। यहीं से तीरंदाजी करने के आधुनिक तरीके का जन्म हुआ। निःसन्देह यह बेहतर तरीका है और आजकल तीरंदाजी इसी तरह से होती है। वर्तमान काल में कोई भी व्यक्ति उस तरह से तीरंदाजी नहीं करता जैसा कि अर्जुन करता था।


एकलव्य को भगवान कृष्ण ने क्यों मारा था




 प्रयाग के तटवर्ती प्रदेश में सुदूर तक फैला श्रृंगवेरपुर राज्य निषादराज हिरण्यधनु का था। एकलव्य हिरण्य धनु निषाद का पुत्र था। गंगा के तट पर अवस्थित श्रृंगवेरपुर उसकी सुदृढ़ राजधानी थी। हिरण्यधनु के मृत्यु के बाद एकलव्य वहां का राजा बना। विष्णु पुराण और हरिवंश पुराण के अनुसार एकलव्य अपनी विस्तारवादी सोच के चलते जरासंध से जा मिला था। जरासंध की सेना की तरफ से उसने मथुरा पर आक्रमण करके यादव सेना का लगभग सफाया कर दिया था। 

यादव सेना के सफाया होने के बाद यह सूचना जब श्रीकृष्‍ण के पास पहुंचती है तो वे भी एकलव्य को देखने को उत्सुक हो जाते हैं। दाहिने हाथ में महज चार अंगुलियों के सहारे धनुष बाण चलाते हुए एकलव्य को देखकर वे समझ जाते हैं कि यह पांडवों और उनकी सेना के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। तब श्रीकृष्‍ण का एकलव्य से युद्ध होता है और इस युद्ध में एकलव्य वीरगति को प्राप्त होता है। यह भी कहा जाता है कि युद्ध के दौरान एकलव्य लापता हो गया था। अर्थात उसकी मृत्यु बाद में कैसे हुई इसका किसी को पता नहीं है।

एकलव्य के वीरगति को प्राप्त होने के बाद उसका पुत्र केतुमान सिंहासन पर बैठता है और वह कौरवों की सेना की ओर से पांडवों के खिलाफ लड़ता है। महाभारत युद्ध में वह भीम के हाथ से मारा जाता है। श्री कृष्ण ने एकलव्य का वध इसीलिए किया क्यूंकि वो अधर्म का साथ दे रहा था। अधर्मी राजा जरासंध की तरफ से युद्ध कर रहा था। और श्री कृष्ण का तो धरती पर अवतरित होने का कारण ही अधर्म को मिटाना था इसीलिए उन्होंने वही किया।

शनिवार, 13 अगस्त 2022

संभोग के समय जनेऊ उतारना चाहिए या पहने रहना चाहिए

जय श्री कृष्णा


सभी साथियों को नमस्कार


आप देख रहे हैं कालचक्र  


  आज हम जानेंगे जनेऊ से जुड़े कुछ ऐसे सवाल जिनको लेकर लोगों के मन में संशय रहता है। इसके अलावा जनेऊ को पहनने के वैज्ञानिक दृष्टि से क्या लाभ हैं।  जनेऊ हमें क्यों पहनाना चाहिए। सहवास करते समय जनेऊ को उतारना ठीक है या पहने रहना है। इन सभी सवालों के जवाब आपको यह विडियो देखने के बाद मिल जाएंगे। तो देखते रहिये कालचक्र


साथियों,

 

आपने देखा होगा कि बहुत से लोग बाएं कांधे से दाएं बाजू की ओर एक कच्चा धागा लपेटे रहते हैं। इस धागे को जनेऊ कहते हैं। जनेऊ तीन धागों वाला एक सूत्र होता है। जनेऊ को संस्कृत भाषा में 'यज्ञोपवीत' कहा जाता है। 

इसे गले में इस तरह डाला जाता है कि वह बाएं कंधे के ऊपर रहे। जनेऊ में मुख्यरूप से तीन धागे होते हैं। यह तीन धागे देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण के प्रतीक होते हैं । यह गायत्री मंत्र के तीन चरणों का प्रतीक है। यह तीन आश्रमों का प्रतीक है। संन्यास आश्रम में यज्ञोपवीत को उतार दिया जाता है।

नौ तार : यज्ञोपवीत के एक-एक तार में तीन-तीन तार होते हैं। इस तरह कुल तारों की संख्या नौ होती है। एक मुख, दो नासिका, दो आंख, दो कान, मल और मूत्र के दो द्वारा मिलाकर कुल नौ होते हैं।

पांच गांठ : इसके अलावा में जनेउ में पांच गांठ लगाई जाती है जो ब्रह्म, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का प्रतीक है। यह पांच यज्ञों, पांच ज्ञानेद्रियों और पंच कर्मों का भी प्रतीक भी है। प्रत्येक आर्य जनेऊ पहन सकता है, बशर्ते कि वह उसके नियमों का पालन करे।


जनेऊ पहनने का लाभ


जीवाणु और बैक्टीरिया से बचाव : जो लोग जनेऊ पहनते हैं और इससे जुड़े नियमों का पालन करते हैं वह मल मूत्र त्याग करते वक्त अपना मुंह बंद रखते हैं। इसकी आदत पड़ जाने के बाद लोग बड़ी आसानी से गंदे स्थानों पर पाए जाने वाले जीवाणु और बैक्टीरिया ओं के प्रकोप से बच जाते हैं।

गुर्दे की सुरक्षा जनेऊ पहनने वाले बैठकर ही जलपान करना करते हैं। अर्थात खड़े रहकर पानी नहीं पीना चाहिए। और बैठकर ही मूत्र त्याग करते हैं। इससे किडनी पर प्रेशर नहीं पड़ता।

हृदय रोग और ब्लड प्रेशर से बचाव : शोध के अनुसार मेडिकल साइंस ने भी यह पाया है कि जनेऊ पहनने वाले लोगों को हृदय रोग और ब्लड प्रेशर की आशंका अन्य लोगों के मुकाबले कम होती है शरीर के खून में प्रभाव को भी कंट्रोल करने में मददगार होता है।

लकवे से बचाव: जनेऊ पहनने से लकवे की संभावना भी कम हो जाती है। क्योंकि जनेऊ धारण करने वाले को लघु शंका व मल त्याग करते समय दांत पर दांत रख कर बैठना चाहिए, ऐसा करने से आदमी को लकवा नहीं मारता।


कब्ज से बचाव :जनेऊ को कान के ऊपर कसकर लपेटने से कान के पास से गुजरने वाली उन नसों का भी दबाव पड़ता है। जिनका संबंध सीधे आंतों से होता है। इस कारण कब्ज की शिकायत नहीं होती है।

स्मरण शक्ति की रक्षा : कान पर हर रोज जनेऊ रखने और कसने से स्मरण शक्ति सही बनी रहती है। क्योंकि कान पर जनेऊ लपेटने से कान पर दबाव पड़ता है जिससे दिमाग की नसें एक्टिव हो जाती हैं।

बुरी आत्माओं से रक्षा : ऐसा मानना है कि जनेऊ पहनने वाले के पास बुरी आत्माएं नहीं भटकती, इसका कारण यह है कि जनेऊ धारण करने वाला खुद पवित्र आत्मरूप बन जाता है, और उसमें आध्यात्मिक ऊर्जा का विकास होता है।


हमारे ग्रंथो में ब्रह्मचर्य के नियम में जनेऊ पहनना अनिवार्य माना गया है। ब्राह्मण के दाहिने कान में वायु, चंद्रमा, मित्र, आदित्य, वरुण,अग्नि आदि देवताओं का वास होता है। इसीलिए इसे दाहिने कान पर मलमूत्र त्याग के समय कान पर चढ़ाया जाता है ताकि अशुद्ध न हो।

अब आते हैं आपके सवाल के जवाब की ओर सहवास के समय जनेऊ धारण करना चाहिए या नही?

सहवास के समय जनेऊ पहनना अनिवार्य माना गया है जैसे आप पहनते हो वैसे ही सहवास के समय धारण किए रहना चाहिए।

अगर जनेऊ खुद से निकल जाता है तो नया जनेऊ धारण कर सकते लेकिन सहवास के समय आप खुद से जनेऊ को नहीं निकल सकते वरना जो भी जनेऊ की पवित्रता है वो समाप्त हों जाएगी। 


शारीरिक सम्बन्ध बनाते समय जनेऊ धारण किये रहना चाहिये अपितु उसे अपने गले में या कान में लपेट लेना चाहिये। जनेऊ का योनी या लिङ्ग से स्पर्श न हो इसका ध्यान रखा जाना चाहिये। जनेऊ को योनीस्राव या वीर्य या मल-मूत्र आदि न लग जाये इसका ध्यान रखा जाना चाहिये। यही कारण है कि लघुशंका या मलविसर्जन के समय जनेऊ को कान में लपेटा जाता है और हाथ पांव धोने के पश्चात् ही कान से निकाला जाता है।

 पत्नी के साथ सहवास गृहस्थ के लिए धर्म है। इसलिए इसे कार्य को करते वक्त जनेऊ को उतारने की आवशयकता नहीं है। बशर्तें कि वो अशुद्ध न हो। इसका ध्यान रखना है, अशुद्ध होने पर जनेऊ को तुरंत बदल देना चाहिए। 



ऐसे करें प्रार्थना तो पूरी होगी कामना





जय श्री कृष्णा

सभी साथियों को नमस्कार

आप देख रहे हैं कालचक्र  

  आज हम बात करंेगे प्रार्थना करने के सही तरीकों पर। अगर आप इन तरीकों को अपनाते हैं तो यकीन मानिए आपकी प्रार्थना चाहे धन की हो या संतान की या फिर नौकरी की जरूर पूरी होगी। आइए जानते हैं ऐसे कौन से तरीके हैं जिनसे प्रार्थना आपके ईष्ट तक आसानी से पहुंच जाती है।


साथियों,  प्रार्थना में वाकई बहुत शक्ति होती है अगर आप इसके जरिए अपनी मनोकामना की पूर्ति चाहते हैं तो जरूरी है कि प्रार्थना को सही तरीके से किया जाए। हम अपनी मेहनत और दिमाग से काबिल तो बन जाते हैं, लेकिन कभी-कभी कुछ मौकों पर हमारी काबिलियत भी हमारे काम नहीं आ पाती।

ये ऐसे मौके होते हैं जब कुछ घटनाओं पर हमारा जोर नहीं चलता। इसी को हम अपनी जुबान में बुरा दौर कहते हैं और इंसान की फितरत ही ऐसी है कि बुरे दौर में ही उसे ईश्वर की याद आती है।  तब मनुष्य उनकी शरण में जाकर उनसे अपनी मनोकामना की प्रार्थना करने लगता है। 

अगर आप चाहते हैं कि आप की पुकार भगवान तक पहुंचे तो आपको प्रार्थना करने के सही तरीके के बारे में पता होना चाहिए।

 ईश्वर से अपने दिल की बात कहना ही प्रार्थना है। प्रार्थना से व्यक्ति अपने या दूसरों की इच्छा पूर्ति का प्रयास करता है। वैसे तंत्र मंत्र ध्यान और जाप भी प्रार्थना का ही एक रूप है।


 प्रार्थना से प्रकृति में आप के अनुरूप बदलाव होते हैं। कोई प्रार्थना एक साथ कई लोग करें तो वह ज्यादा प्रभावित हो जाती है एक साथ प्रार्थना करने पर प्रकृति में तेजी से बदलाव होता है। 


प्रार्थना अनसुनी क्यों हो जाती है

 इंसान को कभी कभी लगता है कि वह ईश्वर से प्रार्थना तो खूब कर रहा है, लेकिन यह सुनी नहीं जा रही है अगर आप भी इस स्थिति में हैं तो हम आपको बताते हैं कि आखिर क्यों कभी-कभी प्रार्थनाएं नाकाम हो जाती हैं। प्रार्थना के नाकाम होने की कुछ वजह हैं 

जैसे आहार और व्यवहार पर नियंत्रण न रखने से प्रार्थना नाकाम होती है। माता-पिता का सम्मान न करने से प्रार्थना असफल होती है। प्रार्थना से आपका ही नुकसान हो रहा हो तो भी प्रार्थना नाकाम हो जाती है अतार्किक प्रार्थना भी असफल हो जाती है 


प्रार्थना के नियम 



सही तरीके से की गई प्रार्थना जीवन में चमत्कारी बदलाव लाती है।

 प्रार्थना सरल और साफ तरीके से की जानी चाहिए 

आसानी से बोली जाने वाली प्रार्थना करनी चाहिए 

शांत वातावरण में प्रार्थना करना सबसे बढ़िया होता है।

 खासतौर पर मध्य रात्रि में प्रार्थना जल्दी स्वीकार हो जाती है। 

 प्रार्थना को रोज एक ही समय पर करना अच्छा होता है।

 दूसरे के नुकसान के उद्देश्य से अतार्किक प्रार्थना न करें

दूसरे के लिए प्रार्थना करने से पहले उसके बारे में सोचें और फिर प्रार्थना शुरू करें।


एसे करें प्रार्थना 

 सबसे पहले एकांत स्थान में बैठे।

 अपनी रीढ़ की हड्डी को बिल्कुल सीधा रखें।

अब अपने ईष्ट, गुरु, ईश्वर का ध्यान करें।

ईश्वर ने अब तक जो आपको दिया है, पहले उसके लिए उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करें

उसके बाद जो प्रार्थना करनी है उसे करें। 

अपनी प्रार्थना को अपने तक ही रखें जब भी मौका मिले अपनी प्रार्थना दोहराते रहें। 

अगर आपने इन तरीकों से सच्चे मन से प्रार्थना की तो यकीनन आपकी मनोकामना पूरी होगी