रविवार, 25 सितंबर 2022

इन छह चीजों से न करें मोह, इन का जाना तय है

 


जय श्री कृष्णा

नमस्कार

साथियों

आज के इस विडियो में हम जानेंगे जीवन से जुड़ी छह ऐसी चीजों के बारें में जिन पर न तो घमंड करना चाहिए और न ही उनसे मोह बनाना चाहिए। क्योंकि यह छह चीजें प्रकृति के अनुसार बहुत ही चंचल होती हैं। और उनका जाना तय है। राक्षसों के गुरु शुक्रचार्य ने इन छह चीजों के बारे में अपनी शुक्रनीति में श्लोक के माध्यम से बताया है। तो चलिए जान लेते हैं वो छह चीजें जो सैदव किसी एक के पास नहीं रहती हैं।

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यौवनं जीवितं चित्तं छाया लक्ष्मीश्र्च स्वामिता।
चंचलानि षडेतानि ज्ञात्वा धर्मरतो भवेत्।।

 

यह श्लोक शुक्र नीति में है। इसका अर्थ है। यौवन, जीवन, मन, छाया, लक्ष्मी और सत्ता ये छह चीजें बहुत चंचल होती हैं। इसे समझ लेना चाहिए और धर्म के कार्यों में रत रहना चाहिए।

आइए अब एक-एक कर विस्तार से समझते हैं कि आखिर क्यों इन छह चीजों से मोह नहीं लगाना चाहिए।

यौवन या जवानी

जवानी का जाना तय है : जवानी कुछ ही समय के लिए होती है। एक न एक दिन इसका जाना तय है और बुढ़ापा भी आता है। जो लोग अपने रूप और सुंदरता पर घमंड करते हैं उन्हें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि प्रकृति के नियम के अनुसार ये रूप और सुंदरता अधिक समय तक नहीं रहेगी और एक दिन चली ही जाएगी।

जीवन खत्म होना तय है

जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु तय है। फिर भी लोग न जानें क्यों अपने जीवन पर इतना घमंड करते हैं और दूसरों का अहित करने में अपना समय व्यर्थ करते हैं। भले ही कोई कितना भी धनवान हो या रूपवान। एक दिन मृत्यु उसे भी अपने साथ ले जाएगी। इसलिए जीवन में घमंड न करें।

मन

न की गति है सबसे अधिक : धर्म ग्रंथों के अनुसार, मन की गति सबसे अधिक है। यानी ये कभी एक जगह टिकता नहीं है। आज इसे ये पसंद है तो कल कुछ और। कई लोग कोशिश करते हैं कि उनका मन उनके वश में रहे, लेकिन कभी न कभी वो अनियंत्रित हो ही जाता है। इसलिए जो चीजें आपके मन को आज पसंद हैं, उस पर घमंड न करें।

छाया या परछाई

परछाई भी हो जाती है गायब : शुक्र नीति के अनुसार वैसे तो परछाई हर कदम पर मनुष्य के साथ रहती है। लेकिन एक समय ऐसा भी आता है कि जब परछाई भी गायब हो जाती है। परछाई का अर्थ है आपकी इमेज। आज आपकी इमेज अच्छी है तो उस पर अधिक घमंड न करें, क्योंकि छोटी सी गलती आपके इमेज को खराब करने के लिए काफी है।

लक्ष्मी यानि पैसा

लक्ष्मी यानी पैसा भी नहीं टिकता : मन की तरह ही धन का भी स्वभाव बड़ा ही चंचल होता है। वह हर समय किसी एक जगह पर या किसी एक के पास नहीं टिकता। इसलिए धन से मोह बांधना ठीक नहीं होता है। अगर कोई व्यक्ति अपने धन पर अहंकार करता है तो उसे ये नहीं भूलना चाहिए कि एक न एक दिन ये पैसा भी उसके पास नहीं रहेगा।

सत्ता

सत्ता भी हमेशा नहीं रहती : जब लोगों के हाथ में सत्ता यानी पॉवर होती है तो उन्हें लगता है कि ये हमेशा के लिए है। लेकिन वे भूल जाते हैं कि यही पावर कल किसी दूसरे के पास भी थी।

इसलिए सत्ता के नशे में किसी के साथ गलत व्यवहार नहीं करना चाहिए, नहीं तो भविष्य में पछताना पडता है। प्रकृति के नियमों के अनुसार पद और अधिकारों का परिवर्तन होता रहता है।

 

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तब तक के लिए नमस्कार, जय श्री कृष्णा धन्यवाद

 

 

शनिवार, 24 सितंबर 2022

जितनी जल्दी हो सके इन 14 अवगुणों का कर दें त्याग…

 


जय श्री कृष्णा

नमस्कार

साथियों,

तुलसीदास जी की रामचरित मानस में 14 अवगुणों से युक्त मनुष्य को जीवित होते हुए भी मृत बताया गया है। यह प्रसंग उस समय आता है जब राम-रावण का युद्ध शुरू होने वाला होता है। अंतिम बार राम के कहने पर अंगद रावण को समझाने जाते हैं, लेकिन रावण अंगद को ही बंदी बनाने को कह देता है। तब अंगर प्रभु राम का नाम लेकर अपना पैर रावण की सभा में जमा देते हैं। रावण की सभा कोई भी योद्धा अंगद का पैर हिला तक नहीं पाता है। अंत में रावण खुद अंगद का पैर उठाने आता है, लेकिन जैसे ही रावण पैर उठाने के लिए जमीन पर बैठता है, तभी अंगद अपना पैर स्वत: हटा लेते हैं और रावण से कहते हैं कि तु तो पहले से ही मरा हुआ है, तुझे मारने से क्या लाभ

तब रावण कहता हैमैं जीवित हूँ, मरा हुआ कैसे?  तब अंगद ने कहा, सिर्फ साँस लेने वालों को जीवित नहीं कहते - साँस तो लुहार की धौंकनी भी लेती है!  सही मायने में जीवित वो है जिसका तन, मन और बुद्धि सभी जागृत अवस्था में होते हैं।

इस दौरान अंगद रावण को 14 अवगुणों के बारे में बताते हैं, जिसे तुलसीदास ने चौपाई के माध्यम से बताया है।

आइए जानते हैं। हैं वो कौन से 14 अवगुण हैं, जिससे जीवित मनुष्य भी मरे के समान है।

 

 

कौल कामबस कृपिन विमूढ़ा।

अतिदरिद्र अजसि अतिबूढ़ा।।

सदारोगबस संतत क्रोधी।

विष्णु विमुख श्रुति संत विरोधी।।

तनुपोषक निंदक अघखानी।

जीवत शव सम चौदह प्रानी।।🐦

 

यह चौपाई रामचरितमानस में लंकाकांड की है। इस का अर्थ है वाममार्गी, कामी, कंजूस, अत्यंत मूढ़, अति दरिद्र, बदनाम, बहुत बूढ़ा, नित्य का रोगी, निरंतर क्रोधयुक्त रहने वाला, भगवान्‌ विष्णु से विमुख, वेद और संतों का विरोधी, अपना ही शरीर पोषण करने वाला, पराई निंदा करने वाला और पापी - ये चौदह प्रकार के अवगुण हैं जो मनुष्य को जीते जी मार देते हैं।

 

आइए अब हम एक-एक कर इन 14 अवगुणों को विस्तार से समझते हैं कि कैसे ये अवगुण जीवित होते हुए भी मरे के सामान हैं।

 

१. वाममार्गी: जो व्यक्ति पूरी दुनिया से उल्टा चले, जो संसार की हर बात के पीछे नकारात्मकता खोजता हो, नियमों, परंपराओं और लोक व्यवहार के खिलाफ चलता हो, वह वाममार्गी कहलाता है। ऐसे काम करने वाले लोग मृत समान माने गए हैं।

२. कामी: जो व्यक्ति अत्यंत भोगी हो,  कामवासना में लिप्त रहता हो, जो संसार के भोगों में उलझा हुआ हो। जिसके मन की इच्छाएं कभी खत्म नहीं होतीं और जो प्राणी सिर्फ अपनी इच्छाओं के अधीन होकर ही जीता है, वह मृत समान है।

३. कंजूस: अति कंजूस व्यक्ति भी मरा हुआ होता है। जो व्यक्ति धर्म का कार्य करने में, आर्थिक रूप से किसी कल्याणकारी कार्य में हिस्सा लेने में हिचकता हो, दान करने से बचता हो, ऐसा आदमी भी मृतक समान ही है।

 

४. अति दरिद्र: गरीबी सबसे बड़ा श्राप है। जो व्यक्ति धन, आत्म-विश्वास, सम्मान और साहस से हीन हो, वह भी मृत ही है। अत्यंत दरिद्र भी मरा हुआ है। गरीब आदमी को दुत्कारना नहीं चाहिए, क्योंकि वह पहले ही मरा हुआ होता है।

५. विमूढ़: अत्यंत मूढ़ यानी मूर्ख व्यक्ति भी मरा हुआ ही होता है। जिसके पास बुद्धि-विवेक न हो, जो खुद निर्णय न ले सके, यानि हर काम को समझने या निर्णय लेने में किसी अन्य पर आश्रित हो, ऐसा व्यक्ति भी जीवित होते हुए मृतक समान ही है, मूढ़ अध्यात्म को नहीं समझता।

 

६. अजसि: जिस व्यक्ति को संसार में बदनामी मिली हुई है, वह भी मरा हुआ है। जो घर-परिवार, कुटुंब-समाज, नगर-राष्ट्र, किसी भी ईकाई में सम्मान नहीं पाता, वह व्यक्ति भी मृत समान ही होता है।

 

७. सदा रोगवश: जो व्यक्ति निरंतर रोगी रहता है, वह भी मरा हुआ है। स्वस्थ शरीर के अभाव में मन विचलित रहता है। नकारात्मकता हावी हो जाती है। व्यक्ति मृत्यु की कामना में लग जाता है। जीवित होते हुए भी रोगी व्यक्ति जीवन के आनंद से वंचित रह जाता है।

 

८. अति बूढ़ा: अत्यंत वृद्ध व्यक्ति भी मृत समान होता है, क्योंकि वह अन्य लोगों पर आश्रित हो जाता है। शरीर और बुद्धि, दोनों अक्षम हो जाते हैं। ऐसे में कई बार वह स्वयं और उसके परिजन ही उसकी मृत्यु की कामना करने लगते हैं, ताकि उसे इन कष्टों से मुक्ति मिल सके।

 

९. सतत क्रोधी: २४ घंटे क्रोध में रहने वाला व्यक्ति भी मृतक समान ही है। ऐसा व्यक्ति हर छोटी-बड़ी बात पर क्रोध करता है। क्रोध के कारण मन और बुद्धि दोनों ही उसके नियंत्रण से बाहर होते हैं। जिस व्यक्ति का अपने मन और बुद्धि पर नियंत्रण न हो, वह जीवित होकर भी जीवित नहीं माना जाता।

 

१०. अघ खानी: जो व्यक्ति पाप कर्मों से अर्जित धन से अपना और परिवार का पालन-पोषण करता है, वह व्यक्ति भी मृत समान ही है। उसके साथ रहने वाले लोग भी उसी के समान हो जाते हैं। हमेशा मेहनत और ईमानदारी से कमाई करके ही धन प्राप्त करना चाहिए। पाप की कमाई पाप में ही जाती है और पाप की कमाई से नीच गोत्र, निगोद की प्राप्ति होती है।

 

११. तनु पोषक: ऐसा व्यक्ति जो पूरी तरह से आत्म संतुष्टि और खुद के स्वार्थों के लिए ही जीता है, संसार के किसी अन्य प्राणी के लिए उसके मन में कोई संवेदना न हो, ऐसा व्यक्ति भी मृतक समान ही है। जो लोग खाने-पीने में, वाहनों में स्थान के लिए, हर बात में सिर्फ यही सोचते हैं कि सारी चीजें पहले हमें ही मिल जाएं, बाकी किसी अन्य को मिलें न मिलें, वे मृत समान होते हैं। ऐसे लोग समाज और राष्ट्र के लिए अनुपयोगी होते हैं। शरीर को अपना मानकर उसमें रत रहना मूर्खता है, क्योंकि यह शरीर विनाशी है, नष्ट होने वाला है।

 

१२. निंदक: अकारण निंदा करने वाला व्यक्ति भी मरा हुआ होता है। जिसे दूसरों में सिर्फ कमियाँ ही नजर आती हैं, जो व्यक्ति किसी के अच्छे काम की भी आलोचना करने से नहीं चूकता है, ऐसा व्यक्ति जो किसी के पास भी बैठे, तो सिर्फ किसी न किसी की बुराई ही करे, वह व्यक्ति भी मृत समान होता है।

१३. परमात्म विमुख: जो व्यक्ति ईश्वर यानि परमात्मा का विरोधी है, वह भी मृत समान है। जो व्यक्ति यह सोच लेता है कि कोई परमतत्व है ही नहीं;  हम जो करते हैं, वही होता है, संसार हम ही चला रहे हैं, जो परमशक्ति में आस्था नहीं रखता, ऐसा व्यक्ति भी मृत माना जाता है।

 

१४. श्रुति संत विरोधी: जो संत, ग्रंथ, पुराणों का विरोधी है, वह भी मृत समान है। श्रुत और संत, समाज में अनाचार पर नियंत्रण (ब्रेक) का काम करते हैं। अगर गाड़ी में ब्रेक न हो, तो कहीं भी गिरकर एक्सीडेंट हो सकता है। वैसे ही समाज को संतों की जरूरत होती है, वरना समाज में अनाचार पर कोई नियंत्रण नहीं रह जाएगा।

 

तो यह थे 14 अवगुण जो व्यक्ति को जीवित रहते हुए भी मृत बना देते थे, अच्छा होगा कि यह अवगुण अगर हैं तो इन्हें जल्दी से त्याग दिया जाए।

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जल्द मिलेंगे एक नए विडियो में एक नए टॉपिक के साथ, तब तक के लिए नमस्कार, धन्यवाद

 

सोमवार, 12 सितंबर 2022

ये 8 गुण जिन लोगों में होते हैं उन्हें मिलती है प्रसिद्धि, सभी करते हैं उनकी तारीफ



जय श्री कृष्णा

नमस्कार


साथियों, आज हम जानेंगे ऐसे आठ गुणों के बारे में जो आपको न सिर्फ प्रसिद्धि दिलाएंगे बल्कि समाज में लोकप्रिय बनाएंगे। ये आठ गुण माहत्मा विदुर ने एक श्लोक के जरिये अपनी विदुर नीति में बताए हैं। 


महात्मा विदुर महाभारत में एक प्रमुख पात्र थे। वे धृतराष्ट्र के भाई भी थे और उनके मंत्री भी। महात्मा विदुर इतने ज्ञानी  थे कि कई बार भगवान श्रीकृष्ण भी उनसे राय लेने आते थे। उनकी बताई नीतियां आज के समय में भी प्रासंगिक है। महात्मा विदुर ने अपनी नीतियों में बताया है कि वे कौन-से 8 गुण हैं, जिनसे मनुष्य की प्रशंसा होती है-


 अगर आप में भी ये आठ गुण होंगे तो आप भी लोकप्रिय और प्रशंसा के पात्र बन सकते हैं। तो आइए देखते हैंं कौन से वो आठ गुण हैं जो एक मनुष्य को दूसरों से हटकर माहन बनाते हैं।  


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तो चलिए शुरू करते हैं आज का विडियो



श्लोक

अष्टौ गुणा: पुरुषं दीपयन्ति, प्रज्ञा च कौल्यं च दम: श्रतुं च!

पराक्रमश्चबहुभाषिता च दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च॥


अर्थ- निम्नलिखित आठ गुणों से मनुष्य की बहुत प्रशंसा होती है- 1. बुद्धि, 2. कुलीनता, 3. मन का संयम, 4. ज्ञान, 5. बहादुरी, 6. कम बोलना, 7. दान देना और 8. दूसरे के उपकार को याद रखना।


ये वे आठ गुण हैं जो किसी भी व्यक्ति को समाज में तारीफ का पात्र बनाते हैं। आइए अब एक-एक कर विस्तार से समझते हैं कि कैसे ये आठ गुण मनुष्य को दूसरों से हटकर माहन बनाते हैं और समाज में तारीफ का पात्र बनाते हैं। 


1. बुद्धि

जो व्यक्ति अपनी बुद्धि का सही तरीके से उपयोग करना जानता है, वह अपनी लाइफ में बहुत सक्सेस पाता है। जो व्यक्ति बिना सोच-समझे कोई काम करता है, उसे अक्सर असफलता का मुंह देखना पड़ता है। कहने का अर्थ है कि लाइफ में सफलता उसी व्यक्ति के हाथ लगती है जो अपनी बुद्धि का सही उपयोग करना जानता है। जो व्यक्ति बिना सोच-समझे कार्य करता है उसे हमेशा असफलता ही हासिल होती है।


2. कुलीन या अच्छा व्यवहार करने वाला

जिस व्यक्ति का व्यवहार सरल और सहज होता है, वह भी अपने इस नेचर के कारण प्रसिद्धि पा सकता है। उसे सब पसंद करते हैं। ऐसे लोगों का सभी सम्मान करते हैं। जबकि इसके उलट व्यवहार करने वाला व्यक्ति कभी किसी का प्रिय नहीं होता।


सादगी से बढ़कर कोई श्रृंगार नहीं होता, विनम्रता से बढ़कर कोई व्यवहार नहीं होता



3. मन का संयम रखने वाला

जो व्यक्ति अपने मन यानी इंद्रियों को नियंत्रण में रखता है, वह साधु के समान होता है। ऐसा व्यक्ति महान गुरु बनकर भटके हुए मनुष्यों को रास्ता दिखाता है। यही काम करते हुए वह प्रशंसा और प्रसिद्धि पाताहै। वो महान कहलाता है। ऐसा व्यक्ति अन्य मनुष्यों को भी रास्ता दिखाता है।


4. ज्ञान

ज्ञान यानी नॉलेज। जिस व्यक्ति के पास ज्ञान होता है, वह हर समस्या का सामना कर लेता है। साथ ही वह लोगों को सही सलाह देकर उनकी परेशानियां भी कम करता है। ऐसे लोग अपने नॉलेज के दम पर अलग जगह बनाते हैं और प्रशंसा पाते हैं।।


5. पराक्रमी यानी बहादुर

जो व्यक्ति पराक्रमी यानी बहादुर होता है वह अपने दम पर प्रसिद्धि पाता है। विषम परिस्थिति में भी ऐसे लोग घबराते नहीं है और दूसरों की भी मदद करते हैं। इनका यही काम इन्हें लोकप्रिय बनाता है।


6. कम बोलने वाला

जो व्यक्ति हमेशा सोच-समझकर बोलता है, कब क्या बोलना है यह जानता है, वह अपनी लाइफ में काफी प्रसिद्ध होता है। जो ज्यादा बोलते हैं, कब क्या बोलना है यह नहीं जानते, उनका कोई सम्मान नहीं करता।


7. क्षमता के अनुसार दान

हिंदू धर्म में दान करना अनिवार्य माना गया है। जो व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुसार दान करता है वह अपनी लाइफ में सक्सेस भी होता है और फेम भी पाता है। दान को सबसे बड़ा पुण्य कार्य माना जाता है। जो व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुसार दान करता है वे लाइफ में खूब तरक्की करता है और ऐसे लोगों का सभी सम्मान भी करते हैं।


8. दूसरों का उपकार याद रखने वाले

जीवन में कभी न कभी सभी को मदद की जरूरत पड़ती है। जो लोग मदद करने वाले को भूल जाते हैं, उन्हें अपने जीवन में हमेशा परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इसके विपरीत जो लोग मदद करने वाले को हमेशा याद रखते हैं और उनके सुख-दुख में साथ देते हैं, वे भी प्रसिद्धि पाते हैं।

शनिवार, 10 सितंबर 2022

'रत्ती भर भी शर्म नहीं आती' इस मुहावरे का इस्तेमाल पूरी दुनिया करती है लेकिन यह 'रत्ती' क्या होता है?


 'रत्ती भर भी शर्म नहीं आती' इस मुहावरे का इस्तेमाल पूरी दुनिया करती है लेकिन यह 'रत्ती' क्या होता है?


'रत्ती' क्या है? ये कहाँ से प्राप्त होता है और इसकी क्या उपयोगिता है?


जय श्री कृष्णा

नमस्कार


साथियों, आज के इस विडियो में हम जानेंगे 'रत्ती' क्या है? ये कहाँ से प्राप्त होता है और इसकी क्या उपयोगिता है? रत्ती का प्रयोग मुहावरे में कैसे हुआ। जब मापने की ईकाई नहीं थी तो  रत्ती की मापक के रूप में क्या भूमिका थी। क्यों इसे सोना, हीरे जवाहारत का मापक पैमाना माना गया है। इसके अलावा रत्ती के स्वास्थय से जुड़े क्या लाभ हैं। रत्ती की आयुर्वेद में क्या भूमिका है। आज का यह विडियो काफी जानकारी भरा होने वाला है।  तो चलिए शुरू करते हैं....

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जब हमें किसी पर बहुत गुस्सा आता है तो हम कह बैठते हैं तुम्हें रत्ती भर भी शर्म नहीं है? या रत्ती भर भी अक्ल नहीं है।   हममें से अधिकतर लोग रत्ती का अर्थ  'जरा सी भी' से निकालते हैं ।  बोलने वाला भी यही सोच कर बोलता है और सुनने वाला भी इसी अर्थ में लेता है। पर असल में इसका कुछ और ही अर्थ और उपयोगिता है।

आपको यह जानकर बहुत ही हैरानी होगी कि रत्ती एक पौधा है । मटर जैसी फली में लगने वाली रत्ती के दाने काले और लाल रंग के होते हैं। यह बहुत आश्चर्य का विषय सबके लिए है। जब आप इसे छूने की कोशिश करेंगे तो यह आपको मोतियों की तरह कड़ा प्रतीत होगा, यह पक जाने के बाद पेड़ों से गिर जाता है।  इस पौधे को ज्यादातर आप पहाड़ों में ही पाएंगे। रत्ती के पौधे का लैटिन नाम एब्रस प्रिकॉटोरियस है। इसके अलावा इसे कई भाषाओं में अलग-अलग नाम से जाना जाता है। आम भाषा में ‘गूंजा ‘ कहा जाता है। अगर आप इसके अंदर देखेंगे तो इसमें मटर जैसी फली में दाने होते हैं।


सोना को मापने के लिए होता था इस्तेमाल

जब लोगों ने इसमें रुचि दिखाई, और इसकी जांच पड़ताल शुरू की तो सामने आया कि पुराने जमाने में कोई मापने का सही पैमाना नहीं था। इसी वजह से रत्ती का इस्तेमाल सोने या किसी जेवरात के भार को मापने के लिए किया जाता था। वहीं सात रत्ती सोना या मोती,  माप के चलन की शुरुआत मानी जाती है।

आपको बता दें कि यह सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि पूरे एशिया महाद्वीप में होता आ रहा था। अभी की भी बात करें तो यह विधि, या कहें तो इस मापन की विधि को किसी भी आधुनिक यंत्र से ज्यादा विश्वासनीय और बढ़िया माना जाता है। आप इसका पता अपने आसपास के सुनार या जौहरी से भी लगा सकते हैं।


मुंह के छालों को भी करता है ठीक

ऐसा माना जाता है कि अगर आप रत्ती के पत्ते को चबाना शुरू करें तो मुंह में होने वाले सारे छाले ठीक हो जाते हैं। साथ ही साथ इस के जड़ को भी सेहत के लिए बहुत ही अच्छा माना जाता है। आपने कई लोगों को’ रत्ती’, ‘ गूंजा’ पहनते हुए भी देखा होगा। कुछ लोग अंगूठी बनवा देते हैं तो कुछ लोग माला बनाकर इसे पहनते हैं। ऐसा माना जाता है कि यह एक सकारात्मक ऊर्जा को उत्पन्न करता है जो की बहुत ही अच्छी बात है।


हमेशा एक जैसा होता है इसका भार

आपको यह जानकर बहुत ही आश्चर्य होगा कि इसकी फली की आयु कितनी भी क्यों ना हो, लेकिन जब आप इसके अंदर उपस्थित बीजों को लेंगे और उनका वजन करेंगे, तब आपको हमेशा यह एक समान ही दिखेगा। इसमें 1 मिलीग्राम का भी फर्क कभी नहीं पड़ता है।

इंसानों की बनाई गई मशीन पर तो कभी-कभी भरोसा उठ भी जाए और यंत्र से गलती हो भी जाए लेकिन इस पर आप आंख बंद करके विश्वास कर सकते हैं। प्रकृति द्वारा दिए गए इस ‘गूंजा ‘ नामक पौधे के बीज की रत्ती का वजन कभी इधर से उधर नहीं होता है। ऐसा लगता है कि ईश्वर ने ही इस पौधे को तराजू की उपाधि दे रखी है।  


अगर वजन मापने की आधुनिक मशीन को देखा जाए तो एक रत्ती लगभग — 0.121497 ग्राम की हो जाती है। जोकि .91 कैरट  होता है। 1 कैरट में 200 मिलीग्राम होता है। और एक ग्राम में 1000 मिलीग्राम होता है। इसी तरह से एक तोला दस ग्राम का होता है। 


गूंजा के बीज तंत्र मंत्र में भी उपयोग किए जाते हैं। ये तांत्रिकों के बीच जितने मशहूर हैं उतने ही आयुर्वेद चिकित्सा में भी इनका प्रयोग किया जाता है। श्वेत गूंजा का आयुर्वेद में सबसे ज्यादा प्रयोग होता है। कुछ गूंजे विषैले भी होते हैं इसलिए बिना जांच पड़ताल के इनका प्रयोग नहीं करना चाहिए।


तो दोस्तों उम्मीद करते हैं कि आज के विडियो से आपको कुछ नई जानकारी मिली होगी। आगे भी ऐसे ही जानकारी पाने के लिए हमारे चैनल ज्ञान मिला को सब्सक्राइब करें। मिलेंगे एक विडियो में एक नए टॉपिक के साथ। तब तक के लिए नमस्कार, धन्यवाद जयश्री कृष्णा



रत्ती के अन्य भाषाओं में नाम

बंगाली में गुंजिका, कुंच

तमिल में कुंतुमनी, कुन्नी

गुजराती में रत्ती, गुमची

मराठी में गुंज, खक्सी

हिंदी में गुंजा, गुमची

संस्कृत में गुंजा, मधुयष्टिका, रती

अंग्रेजी में Jequerity seed, indian liquorice

लैटिन में Abrus precatorius


मृत्यु के समय ये 4 चीजें हों पास तो बिना श्राद्ध भी मिल जाता है स्वर्ग



जय श्री कृष्णा

नमस्कार


साथियों, 

गरुड़ पुराण के अनुसार अगर आपके पास मरते समय 4 खास सामग्री हैं तो यमराज भी आपको प्रणाम करते हैं और दंड नहीं देते हैं। यूं तो हममें से कोई नहीं जानता है कि मरने के बाद क्या होता है लेकिन शास्त्रों के अनुसार इस जीवन में आपने जो अच्छे-बुरे कर्म किए हैं उनका फल भोगना पड़ता है।  लेकिन गुरुड़ पुराण के नवम अध्याय में एक उपाय बताया गया है जिससे मनुष्य को बिना कुछ किए स्वर्ग में स्थान मिल जाता है। पक्षीराज गरुड़ से भगवान विष्णु कहते हैं कि मृत्यु के समय जिनके पास ये चार चीजें होती हैं उनके पास यमदूत नहीं आते और व्यक्ति की आत्मा को स्वर्ग में स्थान मिल जाता है।

आइए जानते हैं वह क्या है...





तुलसी का पौधा

पुराण में बताया गया है कि जिस घर में तुलसी का पौधा होता है वह घर तीर्थरूप होता है। तुलसी की मंजरी से युक्त होकर जो व्यक्ति प्राण त्याग करता है वह यमलोक नहीं जाता है। इसलिए मृत्यु करीब जानकर परिवार के लोगों को तुलसी के पौधों के पास व्यक्ति को लेटा देना चाहिए। मरने वाले व्यक्ति के माथे पर तुलसी के पत्ते और मंजरियों को रख देना चाहिए। व्यक्ति के मुंह में भी तुलसी के पत्ते रख देना चाहिए। इस प्रकार से मृत्यु होने पर व्यक्ति यमलोक नहीं जाता है। इन्हें स्वर्ग जाने का अधिकार प्राप्त हो जाता है।


गंगा जल

सामाजिक मान्यता है कि मृत्यु के समय व्यक्ति के मुंह में लोग गंगाजल डाल देते हैं। गरुड़ पुराण में बताया गया है कि मृत्यु को करीब जानकर जो लोग मरने वाले के मुख में गंगाजल डाल देते हैं वह मरने वाले का बड़ा उपकार करते हैं। गंगा भगवान विष्णु के चरणों से निकली है और पापों का नाश करने वाली है। गंगाजल धारण कर जो प्राण त्यागता है वह स्वर्ग का अधिकारी हो जाता है। पुराण में यह भी कहा गया है कि दाह संस्कार के बाद अस्थि को गंगाजल में प्रवाहित करने से जबतक व्यक्ति की अस्थि गंगा में रहती है तबतक व्यक्ति स्वर्ग में सुख से रहता है।


तिल

भगवान विष्णु ने गरुड़जी के कहा है कि तिल उनके पसीने से उत्पन्न होने के कारण पवित्र है। मृत्यु के समय मरने वाले के हाथों से तिल का दान करवाना चाहिए। इसके दान से असुर, दैत्य, दानव आदि भाग जाते हैं। मरने वाले के सिरहाने में काले तिल को रखना चाहिए, इससे सद्गति प्राप्त होती है।


कुश का आसन

कुश एक प्रकार का घास है जिसे हिंदू धर्म में बहुत ही पवित्र माना गया है। इसके बिना कोई भी पूजा पूरी नहीं होती है। भगवान विष्णु ने पुराण में कहा है कि कुश उनके रोम से उत्पन्न हुआ है। मृत्यु के समय तुलसी के पौधे के पास कुश का आसन बिछाकर व्यक्ति को सुला देना चाहिए और मुंह में तुलसी का पत्ता रख देना चाहिए। इस प्रकार जिनकी मृत्यु होती है वह संतानहीन होने पर भी बैकुंठ प्राप्त करते हैं। कहने का तात्पर्य है कि अगर व्यक्ति का श्राद्ध कर्म करने वाला भी कोई ना हो तब भी वह मुक्ति को प्राप्त कर लेता है।

गुरुवार, 8 सितंबर 2022

नियोग क्या है, यह संभोग से कैसे अलग है

जय श्री कृष्णा

नमस्कार 




साथियों, आज के इस विडियो में हम जानेंगे नियोग क्या है। महाभारत काल में नियोग से संतान उत्पत्ति कैसे होती थी। क्या नियोग वैध प्रथा है। क्या नियोग से उत्पन्न पुत्र वैध होता है। नियोग कब कर सकते हैं। यह संभोग से कैसे अलग है। तो चलिए शुरू करते हैं आज का ये विडियो...


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तो चलिए शुरू करते हैं….

प्राचीन काल में राजाओं को ऋषि, मुनि से वरदान स्वरूप पुत्र की प्राप्ति हो जाती थी। पुत्र प्राप्ति की इस क्रिया को नियोग कहा जाता था। ऋगवेद में भी नियोग के बारे में जानकारी दी गई है। 

नियोग क्रिया उस स्थिति में ही की जा सकती थी, जब राजा नपुंसक हो अथवा किसी कारण से संतान उत्पन्न करने में सक्षम न हो। अथवा रानी किसी कारण से पुत्र उत्पन्न नहीं कर पा रही हो। तब वंश को आगे बढ़ाने और धर्म की रक्षा के लिए अंतिम उपाय के रूप में नियोग क्रिया को अंजाम दिया जाता था। इसमें पति-पत्नी दोनों की रजामंदी से केवल पुत्र प्राप्ति हेतु किसी नियुक्त किए गए दूसरे पुरुष अथवा महिला से पुत्र प्राप्ति करने का प्रावधान था। इसमें सिर्फ गर्भ ठहरने तक ही संबंध रखा जाता था। नियोग से प्राप्त पुत्र को नियोग पुत्र कहा जाता था। किसी भी पुरुष को सिर्फ तीन बार यह प्रक्रिया करने का अधिकार था।

इन नियोग पुत्रों के पिता उनकी माता के पति और उनके ही वंश को चलाने वाले होते थे न कि वो पुरुष जिसके नियोग से वे उत्पन्न हुए हो।


नियोग के प्रकार

नियोग दो प्रकार से होता है। पहले तरीके में एक स्त्री का गर्भ दूसरी स्त्री में ट्रांसफर किया जाता था। इसका उदाहरण बलराम हैं। बलराम जी देवकी जी के गर्भ में थे उनके जन्म लेने पर कंस उन्हें मार देता इसलिए उस गर्भ को वसुदेव जी की दूसरी पत्नी के गर्भ में नियोग के द्वारा भेज दिया गया ।

दूसरा तरीका : इसमें किसी स्त्री के पति के नपुंसक होने पर अथवा उसकी मृत्यु हो चुकी हो तो किसी ऋषि महर्षि,  देवता  जो नियोग के ज्ञाता हो ,उनके द्वारा नियोग से संतानोत्पत्ति की जाती थी। 

महाभारत में विचित्रवीर्य की मृत्यु के पश्चात भगवान वेदव्यास जी के नियोग से विचित्रवीर्य की पत्नियों को धृतराष्ट्र , पांडु, विदुर ये ३ नियोग पुत्र हुए थे।


संभोग और नियोग में अंतर

यद्यपि नियोग और संभोग संतान प्राप्ति के लिए की जाने वाली प्रक्रियाएं है। इसके बावजूद इसमें अंतर है। संभोग में संतान के साथ-साथ काम वासना की पूर्ति करते हुए स्त्री पुरुष आपस में शारीरिक संबंध स्थापित करते हैं। जबकि नियोग में ऐसा नहीं है। नियोग में स्त्री पुरुष काम वासना से रहित होकर संतान की उत्पत्ति करते हैं। नियोग के दौरान काम वासना रोकने के लिए ही स्त्री और पुरुष दोनों अपने शरीर में घी का लेप लगाते थे। ताकि इस कार्य को करते समय दोनों के बीच कहीं से भी काम वासना जागृत न हो। नियोग का एक मात्र उद्देश्य पुत्र प्राप्ति होती थी। संतान उत्पत्ति के लिए आईवीएफ तकनीक, स्पर्म डोनेशन आज भी नियोग के ही बदले रूप हैं।


क्या नियोग से प्राप्त पुत्र वैध होता था

नियोग को व्यभिचार मानना गलत होगा। इसके दो कारण हैं। पहला यह कि ये तरीका सामाजिक कायदे कानून को न तोड़ते हुए और धर्म की रक्षा हेतु पुत्र प्राप्ति करने का तरीका था। इसमें स्त्री की मर्जी अनिवार्य होती थी। इसे तभी किया जा सकता था जब स्त्री के पति की मृत्यु हो गई हो और राज्य में उत्तराधिकारी का संकट दिख रहा हो। अथवा राजा नपुंसक हो गया हो। राजधर्म के पालन हेतु यह एक मान्य क्रिया थी। 


दूसरा यह समाज में उसी तरह से मान्य थी जैसे कि विवाह। अगर विवाह के बाद  पुरुष स्त्री के साथ संभोग करता है तो वो व्यभिचार नहीं माना जाएगा। उसी तरह से जरूरत पड़ने पर अंितम उपाय हेतु पति अथवा घर के बुजुर्गोँ की मर्जी से स्त्री किसी तीसरे नियुक्त पुरुष से नियोग करती थी। इसलिए यह पूरी तरह से वैध था। और इससे प्राप्त पुत्र भी वैध था। 


नियोग का शब्दिक अर्थ ही उपाय से है। 


गर्भ ठहरने के बाद स्त्री दोबारा उस पुरुष से कभी नहीं मिलती थी और न ही वो पुरुष कभी उस जन्मे बच्चे के बारे में पता करता था। 

एक व्यक्ति अपने पूरे जीवनकाल में सिर्फ तीन बार नियोग कर सकता था। ऐसा सिर्फ इसिलए किया गया होगा ताकि इस व्यवस्था का कोई अनुचित लाभ न ले सकें। 

 

नारी वादियों का पक्ष

इस मामले में नारी शक्ति की आवाज उठाने वालों का पक्ष है कि यह एक कुप्रथा थी। इसमें विधवा को पुर्नविवाह की अनुमति देने के बजाय उसे किसी दूसरे शख्स से संतान उत्पत्ति के नाम पर परोसा जाता था। हालांकि उनका यह तर्क इसलिए अमान्य हो जाता है क्योंकि नियोग में नारी की मर्जी अनिवार्य थी। इसके एवज में इनका कहना है कि उस समय की स्त्रियों के पास इतनी आजादी नहीं थी कि वो अपने पति के खिलाफ अथवा घर के खिलाफ आवाज उठा सकें। 

हालांकि आज सेरोगेसी, आईवीएफ और स्पर्म डोनेशन नियोग के बदले रूप में सामने आ चुका है। इसके बाद भी नियोग को गलत ठहराना शायद ठीक नहीं होगा। क्योंकि उस समय की साइंस आज की तुलना में काफी आगे रही होगी। तभी तो बलराम को वासुदेव ने देवकी के गर्भ से रोहिणी के गर्भ में ट्रांसफर किया होगा। 


खैर, हमारा मकसद नियोग से परिचय करवाना था। इसके सही गलत का निर्णय आप पर छोड़ता हूं। कमेंट बॉकस में बताए कि क्या संतान प्राप्ति की यह क्रिया वैध थी। 


उम्मीद करते हैं विडियो पसंद आया होगा। जल्द मिलेंगे एक टॉपिक के साथ एक नए विडियो में, तब तक के लिए नमस्कार, धन्यवाद, जय श्रीकृष्णा

शुक्रवार, 2 सितंबर 2022

काम वासना और अध्यात्म



जय श्री कृष्णा

नमस्कार 

साथियों, आज के इस विडियो में हम जानेंगे कि काम वासना पर अंकुश कैसे लगाया जा सकता है। अगर मन में काम वासना जागृत हो तो हमें क्या करना चाहिए। काम वासना शांत होते ही क्यों मन में एकाग्र बढ़ जाती है। काम वासना के बाद खुद को दोषी महसूस करना क्या है।  काम वासना से मुक्ति पाने में अध्यात्मिकता की क्या भूमिका है। तो चलिए शुरू करते हैं। 



काम, क्रोध, मद और लोभ यह मनुष्य के चार शत्रु माने गए हैं। इन पर काबू करने वाला मनुष्य ही जन्म मरण के फेर से मुक्त हो पाता है। यह चारों शत्रु इतने प्रबल हैं कि मनुष्य चाहकर भी इन्हें रोक नहीं सकता है। बड़े-बड़े ऋषि मुनि तक इस काम के आगे अपनी सालों की तपस्या भंग कर बैठे। विश्वामित्र और मेनका, मार्केंडेय और उर्वशी जैसे कई प्रकरण वेदों में हैं। 

काम के इतने ताकतवर होने के पीछे वजह यह है कि ये शक्तियां खुद भगवान ने बनाई है। इसी को माया कहा जाता है। आप लाख कोशिश करें, लेकिन आप इन पर काबू तब तक नहीं कर सकते हैं, जब तक भगवान स्वयं आपकी मदद न करें। जब हम भगवान से प्रार्थना करते हैं, तब भगवान अपनी इन शक्तियों को आदेश देते हैं कि फलां आत्मा अध्यात्मिक हो रही है या वो मेरे पास आना चाह रही है तो उसके मार्ग पर बाधा न बनों तभी आप इस से मुक्ति पाते हैं।

कहने का अर्थ है कि काम, क्रोध, मद और लोभ भगवान की ऐसी शक्तियां है, जिसके कारण हम कई बाधाओं में पड़ते हैं और फिर हम भगवान को याद करते हैं। यही भगवान चाहते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो काम, क्रोध मद लोभ के कारण ही मनुष्य में अध्यात्म का भाव जागता है और वो संसार के रहस्य को समझने की शक्ति को पुन : प्राप्त करता है। इसलिए यह शक्तियां बुरी नहीं है। लेकिन जब मनुष्य मन के अधीन होकर इनका अत्यधिक प्रयोग शुरू कर देता है, दिन रात उसके मन में काम के प्रति विचार पनपने लगते हैं तो यह शक्ति काम वासना जैसी बुरी प्रवृत्ति में बदल जाती है। 


आइए समझते हैं काम क्या है

सृष्टि चलाने के लिए ब्रह्मा जी ने कुछ नियम बनाए थे। इन िनयमों को 100 अध्याय में उपदेश देकर बताया गया था। इन उपदेशों के कुछ हिस्सों से ही मनु ने मनुस्मृति, बृहस्पति ने अर्थशास्त्र और नंदी ने कामशास्त्र की रचना की। कामशास्त्र को आचार्य वात्सायन ने दोबारा संकलित किया। कामसूत्र में ब्रह्वा जी के बनाए वो नियम थे, जो संसार में प्राणियों की उत्पत्ति से जुड़े रहेंगे। यानी प्राणियों की उत्पत्ति कैसे होगी। प्राणियों का प्रमाद कैसे होगा। और कैसे इस प्रमाद के कारण मनुष्य भगवान को भूलेगा और यही प्रमाद उन्हें पुन: ईश्वर के पास आने का रास्ता दिखाएगा। 

 कामशास्त्र के अनुसार दो व्यक्तियों के बीच हुए अकार्षण को काम कहा गया है।


काम अगर जनेंद्री तक सीमित है तो यह सामान्य है, लेकिन जैसे ही यह मन में हावी होने लगता है तो यह काम वासना में बदल जाता है जो कि घातक हो जाती है। काम और काम वासना में अंतर है। वासना किसी को पाने की वह लत है जो कभी खत्म नहीं होती है। जबकि काम संसार को चलाने के लिए प्राणियों की उत्तपत्ति से जुड़ा है। 

हमारे चंचल मन के कारण काम वासना हावी होती है। इसलिए हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि आपका मन आपको काबू में न रखे, बल्कि वो आपके काबू में रहे। मन को काबू में रखने के लिए बुद्धि होती है। बुद्धि वो शक्ति है जिससे हम मन को काबू में कर सकते हैं। बुद्ध को ताकतवार बनाते हैं विचार, अच्छे विचार और सकारात्मक सोच से ही बुद्धि ताकतवार होगी। और तब ही वो चंचल मन को नियंत्रित रखेगी। 

मन हमारी इंद्रियों को नियंत्रित रखता है। इसलिए अगर आपकी बुद्धि ताकतवार होगी तो मन नियंत्रित रहेगा और अगर मन काबू में रहेगा तो इंद्रिया स्वयं काबू में आ जाएंगी। 

मन में आने वाले विषय इस बात पर निर्भर करते हैं कि आप कहां बैठते हैं, आप क्या देखते हैं और आप कैसा भोजन करते हैं यह सारी बातें आपके मन की दिशा तय करेंगी । अगर आप तामसिक भोजन लेते हैं और अश्लील पिक्चर देखते हैं तो फिर आपका मन काम के प्रति भागेगा। वहीं अगर आप अध्यात्मिक हैं, भगवान के प्रति सेवाभाव रखते हैं। तो मन में भी वहीं विषय आएंगे। 

काम वासना पर कैसे लगे अंकुश 

आप जैसे ही काम वासना को तृप्त करेंगे यह फिर और तेजी से आएगी। यानि हर बार पहले से ज्यादा मजबू स्थिति में। इसलिए विचारों को भगवान में लगाएं। खुद को व्यस्त रखें।  अगर पढ़ने की उम्र हैं तो तो पढ़ाई करें। युवा है तो जॉब करें, पैसा कमाने पर ध्यान दें, बुजुर्ग है तो भगवान को और ज्यादा समय दें।  कुछ भी जो सार्थक हो जिसका भविष्य में उपयोग दिख रहा हो उसमें खुद को व्यस्त करें। 

क्योंकि अगर आप अपनी इंद्रियों को व्यस्त नहीं रखेंगे तो यह मन उनको काम वासना में लिप्त कर लेगा। और तब आप इसमें फंसते चले जाओगे। 

  

वासना तृप्ति के बाद खुद को दोषी महसूस होना क्या है

अगर आप न चाहते हुए भी काम वासना की तृप्ति कर लेते हैं तो उसके बाद आपके मन को क्षणिक सुख प्राप्त होता है, लेकिन बुद्धि आपको दोषी होने का एहसास करवाती है। क्योंकि आपको लगता है कि इतनी मेहनत बेकार हो गई। हमारी यही सोच काम को दोबारा जागृत करती है। इसलिए इस पर सोचना और खुद को दोष देना बंद करें। सोचे जो हुआ वो भी भगवान की मर्जी थी। लेकिन गलती और सीख एक या दो बार तक ही सीमित रखें। बारंबार यही प्रक्रिया न हो इसके लिए आप अपनी बुद्धि को विकसित और बलवान बनाएं ताकि वो मन को खींच कर वहां ले जाए जहां आप खुद को ले जाना चाहते हैं। 

अगर आप अध्यात्ममिकता की ओर लगाव रखते हैं तो यह मन भी इसी ओर जाएगा। याद रहे आप जैसा सोचते हैं वैसा ही होता। क्योंकि प्रकृति आपको देने के लिए तत्पर रहती है, आप उससे जो भी सच्चे मन से मांगते हैं वो आपको मिलता है। 


यह आप पर निर्भर करता है कि आप क्या लेना चाहते हैं। 


इस सबके बावजूद हमें यह ध्यान रखना है कि हम इन उपायों से काम पर काबू पाने का प्रयास मात्र ही कर पाते हैं। लेकिन इस पर काबू पाने के लिए ईश्वर की कृपा होना बहुत जरूरी है। बगैर उसकी कृपा के हम इन शत्रुओं पर विजय नहीं पा सकते हैं।  

हमारे समाज में किशोरावस्था से लेकर आगे तक काम वासना को हैंडल करने की कला सिखाई, बताई या पढ़ाई नहीं जाती। इस विषय पर सभी अंधेरे में रहते हैं। जो छुप कर पढ़ लिया इंटरनेट आदि से या फ्रेंड्स ने ज्ञान दे दिया उसी पर निर्भर रहते हैं। रिलेशनशिप के बारे में युवा लोग एक अज्ञानी की तरह प्रवेश करते हैं। वहां दोनों नासमझ हैं। जबकि यह विषय जीवन से इतना गहरा जुड़ा है कि इसको इग्नोर नहीं कर सकते। 

यौन शिक्षा एक अलग विषय है जो स्कूल पढ़ाया जाना शुरू हो गया है, मगर वह बिल्कुल अलग विषय है। जीवन के मैदान में सम्बन्धों के बारे में व्यावहारिक ज्ञान के लिए आज भी शून्य व्याप्त है। इसलिए बच्चे किशोर, युवा भटक रहे हैं।  इस विषय पर कक्षा छह से हलका फुल्का ज्ञान देकर समझाया जाना चाहिए ताकि बारहवीं तक मानसिक रूप से बच्चे मजबूत हो सके और उनको कोई बहका ना सके 

कुछ त्वरित उपाय जो असरदार हैं वे ये हैं:

अश्लील बात करना बन्द करें।

अश्लील सीन वाली फिल्म छोड़ दें।

अश्लील गीत न सुनें।

व्यायाम करें।

गीता पढ़ना शुरू करें।


शुक्रवार, 26 अगस्त 2022

नंदी कथा

 



जय श्री कृष्णा

नमस्कार साथियों

आज के इस विडियो में हम जानेंगे भगवान शिव के वाहन नंदी की कहानी। नंदी कौन थे, भगवान शिव ने अपने वाहन के रूप में नंदी को ही क्यों चुना। भगवान शंकर के सभी गणों में नंदी सर्वेक्षेष्ठ क्यों है। नंदी को भोलेबाबा के गणों में सेनापति का दर्जा क्यों मिला। नंदी मंदिर के बाहर क्यों बैठते हैं। श्रद्धालु नंदी के कान में मनोकामना क्यों कहते हैं। नासिक में पंचवटी शिवमंदिर ही ऐसा क्यों है जहां शिवलिंग के सामने नंदी नहीं है। इन सभी सवालों के जवाब जानने के लिए देखिए आज का यह विडियो नंदी की कहानी।

 


प्राचीन काल में एक ऋषि थे शिलाद। उन्होंने ब्रह्मचारी रहने का निश्चय किया किन्तु जब उनके पिरों को ये पता चला कि शिलाद ने ब्रह्मचारी रहने का निश्चय किया है तो वे दुखी हो गए क्यूँकि जबतक शिलाद को पुत्र प्राप्ति ना हो, उनकी मुक्ति नहीं हो सकती थी। शिलाद विवाह नहीं करना चाहते थे किन्तु अपने पिरों के उद्धार के लिए पुत्र प्राप्ति की कामना से उन्होंने भगवान शिव की कई वर्षों तक घोर तपस्या की। उनकी तपस्या से महादेव प्रसन्न हुए और उन्हें अपने सामान ही एक पुत्र की प्राप्ति का वरदान दिया। उसके कुछ समय बाद शिलाद ने पुत्र प्राप्ति हेतु यज्ञ किया और भूमि को जोतते समय उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति हुई जिसे देख कर उन्हें अत्यंत आनद हुआ। पुत्र का नाम उन्होंने नंदी रखा, अर्थात आनंद।

एक बार मित्र एवं वरुण नामक दो आदित्य शिलाद मुनि के आश्रम में आये। वहाँ पर शिलाद और नंदी ने उनकी खूब सेवा की जिससे प्रसन्न होकर दोनों ने शिलाद को तो दीर्घायु होने का आशीर्वाद दिया किन्तु नंदी को बिना आशीर्वाद दिए वे जाने लगे। तब शिलाद मुनि ने दोनों से पूछा कि उन्होंने उनके पुत्र को आशीर्वाद क्यों नहीं दिया। इसपर दोनों ने बताया कि नंदी अल्पायु है और १६ वर्ष पूर्ण करते ही उसकी मृत्यु हो जाएगी। ये सुनकर शिलाद विलाप करने लगे। तब उन दोनों ने नंदी को महादेव की तपस्या करने को कहा।

फिर नंदी ने महादेव की कठोर तपस्या की जिससे महारुद्र प्रसन्न हो उन्हें दर्शन देने आये। जब उन्होंने वरदान माँगने को कहा तो नंदी ने सदैव उन्हें उनके सानिध्य में रहने का वरदान माँगा। तब महादेव ने उसे अमरता का वर दिया और अपने वाहन के रूप में स्वीकार किया। नंदी वही से महादेव के साथ कैलाश को चले गए और उनकी सेवा में रम गए।

जब शिलाद को ये पता चला कि भगवान शिव की कृपा से उनका पुत्र अजर-अमर हो गया है तो वे अत्यंत प्रसन्न हुए।

महादेव की सेवा करते हुए नंदी को बहुत दिन बीत गए और शिलाद अत्यंत वृद्ध हो गए। तब वे अपने पुत्र से मिलने कैलाश पहुँचे। नंदी अपने पिता को देख कर बड़े प्रसन्न हुए और उनकी खूब सेवा की। तब शिलाद ने नंदी से साथ चलने को कहा किन्तु नंदी ने उनकी आज्ञा ये कह कर ठुकरा दी कि उनके जीवन का उद्देश्य केवल भगवान शिव की सेवा करना ही है। तब शिलाद मुनि ने भगवान शिव से प्रार्थना की कि अब इस वृद्धावस्था में वे उनके पुत्र को उनके साथ भेज दें। ये सुनकर भगवान शंकर ने उन्हें अपने पिता के साथ जाने की आज्ञा दी।

नंदी महादेव की आज्ञा मानने को विवश थे, इसी कारण भरे मन से वे शिलाद के साथ लौट तो गए लेकिन उनके प्राण कैलाश में ही रह गए। अपने आराध्य से दूर होने के कारण नंदी का स्वास्थ्य प्रतिदिन बिगड़ने लगा। तब शिलाद ने उका विवाह मरुत कन्या सुयशा से करवा दिया ताकि गृहस्थ जीवन में वे रम जाएँ किन्तु इसका नंदी के स्वास्थ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और वे शीघ्र ही मरणासन्न अवस्था में पहुँच गए। जब शिलाद मुनि ने देखा कि उनके पुत्र के प्राण संकट में हैं तब उन्होंने भगवान शिव से उसे बचाने की प्रार्थना की। अपने भक्त को इस अवस्था में देख कर वे तुरंत आश्रम पहुँचे और नंदी को स्वस्थ कर दिया। तब शिलाद मुनि समझ गए कि नंदी महादेव के बिना जीवित नही रह सकता इसीलिए उन्होंने उसे सुयशा के साथ कैलाश जाने की आज्ञा दे दी।

एक बार महादेव देवी पार्वती के साथ अन्तःपुर में थे और उन्होंने नंदी को द्वार की रक्षा करने को कहा। तभी वहाँ महर्षि भृगु आये और महादेव के दर्शनों की इच्छा जताई। किन्तु नंदी ने उनसे कहा कि महादेव की आज्ञा अनुसार वे द्वार से नहीं हट सकते। इसपर महर्षि भृगु क्रोधित हो गए और उन्होंने नंदी को श्राप दिया कि वो जल्दी ही किसी के हाथों परास्त होगा। जब भगवान बाहर आये तो नंदी की स्वामी भक्ति से बड़े प्रसन्न हुए और उसे समस्त शिवगणों का अधिपति बना दिया और नंदीश्वर की उपाधि दी।

कुछ काल के बाद राक्षसराज रावण कैलाश पहुँचा और नंदी ने उसे रोका। तब रावण और नंदी के बीच भयंकर युद्ध हुआ किन्तु भृगु के श्राप के कारण रावण ने नंदी को परास्त कर दिया। उसे परास्त करने के बाद रावण ने उसे पशुमुख कह उसका उपहास किया। तब नंदी ने रावण को श्राप दिया कि किसी पशुमुख के कारण ही उसका विनाश होगा। उसी श्राप के कारण ही महादेव ने हनुमान के रूप में रुद्रावतार लिया और समस्त लंका को जला कर भस्म कर दिया।

नंदी को स्वामिभक्ति के साथ-साथ बल और कर्मठता का प्रतीक भी माना गया है। श्रीराम के अश्वमेघ यज्ञ के समय श्रीराम की सेना ने वीरमणि के राज्य पर आक्रमण किया तो शिवगणों के साथ उनका भयानक द्वन्द हुआ। उस युद्ध में नंदी ने स्वयं हनुमान को शिवास्त्र से बांध दिया था।

 जब देवी सती ने दक्ष के यज्ञकुंड में आत्मदाह कर लिया था तो वीरभद्र के आने से पहले नंदी ने अकेले ही दक्ष की सेना का संहार कर दिया था। यही नहीं कई जगह इस बात का भी वर्णन है कि श्रीगणेश और कार्तिकेय को अपनी पहली युद्ध शिक्षा नंदी से ही प्राप्त हुई थी।

एक कथा के अनुसार देवी पार्वती ने भगवान शिव से वेदों का रहस्य जानने का अनुरोध किया। ये ज्ञान इतना गूढ़ था कि भगवान शिव देवी पार्वती को लेकर अमरनाथ की गुफा में ले गए ताकि देवता भी इस रहस्य को ना जान सकें। मार्ग में वे चंद्र, वासुकि इत्यादि सभी चीजों का त्याग करते गए। गुफा में पहुँचकर वे नंदी को भी वही छोड़ते हुए कहते हैं कि "वत्स! मैं तुम्हे सबसे अंत में त्याग रहा हूँ क्यूंकि तुम मुझे सब प्रिय हो।" इसलिए ही नंदी भोलेबाबा को सबसे ज्यादा प्रिय हैं। 

वेदों का ज्ञान देने से पहले वे पार्वती से कहते हैं कि अगर उन्होंने ये ज्ञान पूरा ना सुना तो वे उनसे बिछड़ जाएँगी। देवी पार्वती के आश्वासन देने पर भगवान शिव कथा प्रारम्भ करते हैं किन्तु देवी बीच में ही सो जाती हैं। इस कारण वे शिव से दूर हो ग और अगले जन्म में एक मछुआरे के यहाँ जन्मी। उनके पिता ने शर्त रखी कि जो भी मछुआरा इस विश्व की सबसे बड़ी मछली को मरेगा वे उसी से बेटी का विवाह करेंगे। तब भगवान शिव एक मछुआरे के वेश में वहाँ आये और नंदी ने एक बहुत बड़ी मछली के रूप में अवतार लिया। तब मछुआरे रुपी शिव ने मछली रुपी नंदी का वध कर विवाह की शर्त पूरी की और देवी पार्वती को पुनः प्राप्त किया।

भगवान शिव सदैव समाधि में रमे रहते हैं इसी कारण उन्होंने नंदी को आज्ञा दी है कि वे उनके मंदिर के सामने बैठ कर उनके भक्तों की प्रार्थना सुने। इसी कारण हरेक शिव मंदिर में नंदी की प्रतिमा होती है और भक्त अपनी प्रार्थना उनके कान में कहते हैं जो सीधे महादेव तक पहुँचती है। बिना नंदी की प्रतिमा के शिव मंदिर अधूरा माना जाता है।

नासिक के पंचवटी में एकमात्र ऐसा शिव मंदिर है जहाँ नंदी की प्रतिमा नहीं है। कहते हैं कि ब्रह्मा के पांचवे सिर को काटने के कारण भगवान शंकर को ब्रह्महत्या का पाप लग गया। तब पंचवटी में गोदावरी के पास उन्हें एक बछड़ा मिला जो नंदी था। उसने भगवान शिव को गोदावरी के रामकुंड में स्नान करने को कहा। ऐसा करने पर वे ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो गए और उन्होंने नंदी को उस स्थान पर अपना गुरु माना और अपने सामने बैठने से मना कर दिया।

नंदी के विषय में एक कथा समुद्र मंथन की आती है। समुद्र मंथन में जब हलाहल निकला तब महदेव ने उसे पी लिया जिससे उनका कंठ नीला हो गया। हलाहल पीते समय कुछ बूंदें धरती पर गिर गयी। जब नंदी ने महादेव का कंठ देखा तो उसे बड़ा दुःख हुआ और उसने जमीन पर पड़ी हलाहल की बूंदों को अपनी जीभ से साफ कर दिया। इसे देख कर सभी हैरान रह गए और नंदी से इसका कारण पूछा। तब नंदी ने कहा कि जिस कष्ट को उनके स्वामी ने ग्रहण किया है वही कष्ट उसने भी ग्रहण किया। इसे देख कर देव एवं दैत्यों ने एक स्वर से नंदी की प्रशंसा की।

शिवगणों में नंदी का स्थान सबसे ऊँचा है। शिव पुराण के अनुसार भगवान शिव की सेना के आठ प्रमुख सेनापति हैं। ये हैं - गणेश, नंदी, देवी, चण्ड, महाकाल, ऋषभ, भृंगी और मुरुगण

उसी प्रकार नंदी को नंदिनाथ संप्रदाय का जनक माना जाता है। इस संप्रदाय में नंदी के आठ शिष्य माने गए हैं जो आठों दिशाओं में शैव धर्म के प्रचार हेतु गए। ये हैं - सनत, सनातन, सनन्दन, सनत्कुमार, तिरुमुलर, व्याघ्रपाद, पतञ्जलि और शिवयोग