गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

बच्चों को सुधार का मौका दिए बिना कठोर सजा कितनी सही

बच्चों को सुधार का मौका दिए बिना कठोर सजा कितनी सही


राज्यसभा से पास होने के बाद जुवेनाइल जस्टिस (केयर ऐंड प्रोटेक्शन ऑफ़ चिल्ड्रेन) बिल अब कानून में परिवर्तित हो जाएगा।  नए कानून के अंतर्गत अब 16 से 18 साल का कोई नाबलिग गंभीर अपराध (हत्या और रेप जैसे जघन्य अपराध)  करेगा तो उसके खिलाफ व्यस्कों की तरह ही केस चलेगा। हालांकि इसका फैसला जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड करेगा। इसके लिए नाबालिग़ को अदालत में पेश करने के एक महीने के अंदर 'जुवेनाइल जस्टीस बोर्ड' इसकी जांच कर यह तय करेगा कि उसे 'बच्चा' माना जाए या 'वयस्क'।  वयस्क माने जाने पर किशोर को मुक़दमे के दौरान भी सामान्य जेल में रखा जाएगा।


जुवेनाइल जस्टिस कानून में जघन्य अपराध करने वाले की उम्र 18 साल से घटाकर 16 साल कर दी गई है, लेकिन इस पर आमराय अभी भी बंटी हुई है। कुछ लोगों का कहना है कि निर्भया कांड जैसी घटनाओं को देखते हुए उम्र घटाना जरूरी था, जबकि दूसरे लोगों का मानना है कि किसी एक घटना के आधार पर कानून बदलना जल्दबाजी है। 

उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ में चाइल्ड राइट्स के लिए काम करने वाली एहसास संस्था की शचि सिंह का कहना है कि इस कानून से चाइल्ड राइट्स के लिए काम करने वाले कोई भी एक्टिविस्ट खुश नहीं होंगे। उन्होंने कहा कि अपराध में बच्चों का प्रयोग किया जाता है। ग्रामीण इलाकों में तो अधिकांश केस फर्जी निकलते हैं। ऐसे में बच्चों की पूरी जिंदगी खराब हो जाएगी। उन्होंने कहा कि ‘हम लोग बच्चों के साथ काम करते हैं, इसलिए हम इसके प्रभाव को समझ सकते हैं। महिला एवं बच्चों के लिए काम करने वाली सामाजिक संस्था आली की रेनू मिश्रा का मानना है कि नाबालिग के रिफॉर्म पर बात होनी चाहिए, लेकिन यहां पूरा कानून बदल दिया गया। जब यह कानून बना था तो पूरी दुनिया में रिसर्च के बाद इसे बनाया गया था। अब जो यह बिल पास किया गया उसमें न किसी विशेषज्ञ से राय ली गई और न ही इसकी बारीकियों को समझा गया है। बल्कि गुपचुप तरीके से इसे पास कर दिया गया है। रेनू कहती है कि इस संशोधन प्रस्ताव का मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के विरोध करने के बावजूद इसे एक संसदीय समिति के पास भेज दिया गया। इस समिति ने 16-18 साल की उम्र के नाबालिग़ों पर आईपीसी के तहत मुकदमा चलाने का विरोध किया, लेकिन कैबिनेट और लोकसभा ने नए बिल को स्वीकृति दे दी।
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील अरविंद जैन ने भी बीबीसी को दिए अपने इंटरव्यू में कहा है कि बच्चों के प्रति जो राष्ट्र और समाज की जिम्मेदारी है उसे सिर्फ एक मामले पर जनभावनाओं या मीडिया के दबाव में नहीं बदला जा सकता। उन्होंने यहां तक कहा है कि वाजपेयी सरकार में मंत्री रहीं मेनका गांधी ने ही इस उम्र को 16 से बढ़ाकर 18 साल करवाया था। और आज मेनका गांधी ने ही इस उम्र को कम करने का प्रस्ताव दिया है।

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) से प्राप्त आंकड़ों के मुताबिक भारत में 2014-15 में जितने अपराध हुए हैं उसमें से जुवेनाइल से जुड़े अपराधों का हिस्सा 1.2 प्रतिशत है। बड़ी बात यह है कि यह प्रतिशत पिछले कुछ सालों से नियत है। जबकि भारत में युवाओं और जुवेनाइल की संख्या अन्य देशों की तुलना में ज्यादा है। इसके बावजूद मीडिया में कहा जाता है कि जुवेनाइल से जुड़े जघन्य अपराध बढ़ रहे हैं। ये सरासर गलत है। ऐसी गलत बातों को सामने रखकर नाबलिग की उम्र 18 से घटाकर 16 किया जाना सरासर गलत है। इन्हें जेल में खतरनाक अपराधियों के साथ रखेंगे तो जब ये सुधरने की बजाय और ज्यादा अपराधी होकर बाहर निकलेंगे।
लखनऊ यूनिवर्सिटी की पहली महिला कुलपति और महिलाओं के लिए काम करने वाली संस्था सांझी की रूपरेखा वर्मा कहती हैं कि बाल सुधार गृह में जो काम करने चाहिए, उसे ना करके नाबालिग अपराधी को बालिग की तरह फांसी पर लटका देना देश हित में नहीं है। हमारी जिम्मेदारी होनी चाहिए कि बच्चों को सुधारने के लिए जो कानून और नीतियां बनाई गई हैं उसका सही ढंग से क्रियान्वयन कराना, लेकिन हम अपनी इस जिम्मेदारी से बचने के लिए उन्हें सजा का डर दिखा रहे हैं।

सिर्फ एक निर्भया के लिए बदला कानून


दिसंबर 2012 में दिल्ली में हुए निर्भया गैंगरेप के आरोपियों को कड़ी सजा दिलाने की मांग पूरे देश में उठने लगी। हाईकोर्ट का फैसला भी लोगों के पक्ष में आया और चारों आरोपियों को फांसी की सजा सुनाई गई, लेकिन आरोपियों के बचाव पक्ष के वकील एपी सिंह ने चार में से एक आरोपी जो कि अपराध करने के समय 17 साल का था उसे नाबलिग बताकर उसका केस जुवेनाइल एक्ट से चलाने की दलील दी। परिणाम स्वरूप एक आरोपी को जुवेनाइल एक्ट के तहत महज तीन साल की सजा हुई। इस दौरान उसको रिफॉर्म सेंटर में रखा गया। जिसे 20 दिसंबर 2015 को रिहा कर दिया गया। आरोपी की रिहाई से नाराज पीड़ित के माता पिता ने इसे न्यायसंगत न मानते हुए एक्ट में सुधार की मांग की। परिणामस्वरूप पूरे देश में उनके पक्ष में आंदोलन खड़ा हो गया। लोगों का आक्रोश इस कदर बढा कि बिल में संशोधन की जरूरत महसूस होने लगी। इसके बाद महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने जुवेनाइल जस्टिस बिल 2014 को लोकसभा में 12 अगस्त 2014 को लोकसभा में रखा। लंबी बहस और रिसर्च के बाद लोकसभा ने 7 मई 2015 को इस बिल को पास कर दिया। इसके बाद बिल को राज्यसभा में पेश किया गया जहां 22 दिसंबर 2015 को बिल को पास कर दिया गया।

कहां चले मुकदमा?

संशोधित कानून - नाबालिग को अदालत में पेश करने के एक महीने के अंदर 'जुवेनाइल जस्टीस बोर्ड' ये जांच करे कि उसे 'बच्चा' माना जाए या 'वयस्क'। वयस्क माने जाने पर किशोर को मुकदमे के दौरान भी सामान्य जेल में रखा जाए। हालांकि चाइल्ड राइट पर काम करने वाले विशेषज्ञों का मानना है कि  फैसले के लिए एक महीने का समय बहुत कम है। पुलिस चार्जशीट में या अदालत के फैसले में दोष साबित हुए बगैर, किशोर को वयस्कों की जेल में रखना गलत होगा। इन लोगों का कहना है कि दुनियाभर में किए अध्ययन के मुताबिक किशोरों को कड़ी सजा देने से उनकी अपराध करने की दर में कोई कमी नहीं आती। बल्कि सुधार गृहों में बेहतर सुविधाओं से लंबे दौर में बदलाव लाया जा सकता है।  

कौन सा बच्चा माना जाएगा 'वयस्क'?

भारत समेत दुनियाभर के करीब 190 देशों ने ‘यूएन कन्वेंशन ऑन चाइल्ड राइट्स’ पर हस्ताक्षर किए हैं। इसके अंतर्गत कानूनन किसी बच्चे को 'वयस्क' मानने के लिए उम्र सीमा को 18 साल रखने की सलाह दी गई है। ऐसे में 18 साल से कम उम्र के अभियुक्त का सामान्य अदालत की जगह 'जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड' में मुकदमा चलता है। हालांकि यूएन कन्वेंशन ऑन चाइल्ड राइट्स’ के बावजूद देशों को उनके हिसाब से कानून में संशोधन करने की छूट दी गई है। इसके चलते ही दुनिया के अलग-अलग देशों में इसके लिए अलग-अलग कानून हैं।

जहां अपराधी बच्चों को दी जाती है उम्रकैद

वैसे तो भारत समेत दुनियाभर के 190 देशों ने ‘यूएन कन्वेंशन ऑन चाइल्ड राइट्स’ पर हस्ताक्षर किए हैं। इसमें उम्र सीमा को 18 साल रखने की सलाह दी गई है। पर हर देश इसमें  अलग नियम बनाने को स्वतंत्र है।

बिट्रेन

 दस साल से कम उम्र में किसी भी अपराध के लिए गिरफ्तारी नहीं हैलेकिन कुछ पाबंदियां लगाई जा सकती हैं। 10-17 साल कीउम्र के बच्चों पर मुकदमा जुवेनाइल कोर्ट मेंऔर दोषी पाए जाने पर विशेष सेंटर्स में भेजा जा सकता है। 18 साल की उम्र के किशोर को25 साल की उम्र तक जेल के बजाय विशेष सेंटर में भेजा जा सकता है। 10 साल की उम्र के बाद दी गई अधिकतम सजा उम्रकैद हो सकतीहै।

अमेरिका : 


यहां हर राज्य ने अपने हिसाब से बच्चों पर मुकदमा चलाने की उम्र तय की है और ये अलग-अलग राज्य में न्यूनतम 6साल से लेकर 12 साल तक है। इसी तरह हर राज्य में बच्चों पर मुकदमा चलाए जाने की अधिकतम उम्र 16 से लेकर 19 साल तक है। इस उम्र तक मुकदमा जुवेनाइल जस्टिस कोर्ट में चलाकर सज़ा सुधार गृह भेजने जैसी हो सकती है। जघन्य अपराधों में नाबालिग काकेस जुवेनाइल कोर्ट से वयस्कों की अदालत में भेजने का प्रावधान है।  जहां उसे बालिग समझते हुए मुकदमा चलाया जा सकता है। कुछराज्यों में 10 साल के बच्चे को भी अधिकतम उम्रकैद की सजा हो सकती है।


पाकिस्तान 

सात साल से कम उम्र के बच्चों के खिलाफ कोई  मुकदमा नहीं चलाया जा सकता। पर 1996 के एक अध्यादेश के ज़रिएरेपअवैध संबंध बनानेशराब पीने,  ड्रग्स का सेवन करनेचोरी और किसी को बदनाम करने जैसे अपराध में अब हर उम्र के व्यक्ति कोअपराधी माना जा सकता है। यहां किसी जुवेनाइल कोर्ट की स्थापना नहीं की गई है। हालांकि कुछ मौजूदा अदालतों को यह दर्जा दे दियागया है। किशोरो की चार जेलें हैंलेकिन अक्सर किशोरों को वयस्कों की जेल में ही रखा जाता है।